Friday, December 31, 2010
Wednesday, October 20, 2010
बाहर टिकट फुल :अंदर खाली स्टेडियम
राष्ट्रमंडल खेलों का सफल हो जाना भारत के लिये एक उपलब्धि है|मैं कमेंट्री बाक्स से खाली खाली स्टेडियम देखतरहती|आलोचक यह कहते नहीं थकते थे कि दिल्ली एक स्पोर्टिंग सिटी नहीं है|लेकिन सच यह नहीं था|
दिल्लीवासी तमाम असुविधाओं के होते हुए भी खेल के उत्साह में रँगने के लिये बेताब थे|लेकिन विचित्र स्थिति तब होती है जब वे टिकट खरीदने जाते हैं तो ऑल सोल्ड का नोटिस लगा होता है,लेकिन स्टेडियम में दर्शक दीर्घा पूरी खाली होती थी|
प्रश्न यह है कि टिकटें गयी कहाँ?तब मन यह करता कि कमेंटेटर बाक्स से निकल कर दर्शकों की कमी पूरी करने की कोशिश करूँ|खालसा कॉलेज की हूँ न!अपने को सवा लाख से तो कम समझती ही नहीं हूँ|लेकिन में तो स्विमिंग कांप्लेक्स में थी.पूरा का पूरा वी.आई.पी. ब्लाक खाली था|जो भी दर्शक नजर आ रहे थे वे या तो पुलिस कर्मी थे या खिलाड़ी या उनके परिवार जन|हाँ मीडिया बहुत तादाद में था|अगर उन खाली कुर्सियों पर हमारे स्कूल या काँलेज के बच्चे बिठा दिये जाते तो उन्हीं बच्चों में से कोई गगन नारंग,प्रशांत करमाकर,सायना नेहवाल बनने की प्रेरणा ले जाता|और सुरक्षा की दृष्टि से भी ये सेफ थे|
जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम 60000 की क्षमता वाला स्टेडियम है|अब यदि वहाँ 500 भी न नजर आए तो यह प्रश्न सहज ही उठेगा कि कौन है जो टिकटों की कालाबाजारी कर रहा है|बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों से गुहार लगाते नजर आए कि यार.. जरा ताली बजाओ,तभी तो हमें जोश आएगा और हमारा परफारमेंस बेहतर होगा|वही गिने चुने दर्शक बेचारे ताली पीट-पीट कर अपने हाथ लाल करते रहे|उस पर भी जुलम यह हो गया कि आयोजक आ जाते कि जनाब आपकी टिकट का टाइम खत्म हो गया, बाहर निकलो और बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों को बड़ी पीड़ा से बाहर जाते देखते|
होम ग्राउंड का फायदा न तो खिलाड़ियों को मिला न ही दर्शकों को बहुत जरूरी है कि इसकी कायदे से तफ्तीश की जाए ताकि खेल के अपराधियों को पकड़ा जा सके|
दिल्लीवासी तमाम असुविधाओं के होते हुए भी खेल के उत्साह में रँगने के लिये बेताब थे|लेकिन विचित्र स्थिति तब होती है जब वे टिकट खरीदने जाते हैं तो ऑल सोल्ड का नोटिस लगा होता है,लेकिन स्टेडियम में दर्शक दीर्घा पूरी खाली होती थी|
प्रश्न यह है कि टिकटें गयी कहाँ?तब मन यह करता कि कमेंटेटर बाक्स से निकल कर दर्शकों की कमी पूरी करने की कोशिश करूँ|खालसा कॉलेज की हूँ न!अपने को सवा लाख से तो कम समझती ही नहीं हूँ|लेकिन में तो स्विमिंग कांप्लेक्स में थी.पूरा का पूरा वी.आई.पी. ब्लाक खाली था|जो भी दर्शक नजर आ रहे थे वे या तो पुलिस कर्मी थे या खिलाड़ी या उनके परिवार जन|हाँ मीडिया बहुत तादाद में था|अगर उन खाली कुर्सियों पर हमारे स्कूल या काँलेज के बच्चे बिठा दिये जाते तो उन्हीं बच्चों में से कोई गगन नारंग,प्रशांत करमाकर,सायना नेहवाल बनने की प्रेरणा ले जाता|और सुरक्षा की दृष्टि से भी ये सेफ थे|
जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम 60000 की क्षमता वाला स्टेडियम है|अब यदि वहाँ 500 भी न नजर आए तो यह प्रश्न सहज ही उठेगा कि कौन है जो टिकटों की कालाबाजारी कर रहा है|बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों से गुहार लगाते नजर आए कि यार.. जरा ताली बजाओ,तभी तो हमें जोश आएगा और हमारा परफारमेंस बेहतर होगा|वही गिने चुने दर्शक बेचारे ताली पीट-पीट कर अपने हाथ लाल करते रहे|उस पर भी जुलम यह हो गया कि आयोजक आ जाते कि जनाब आपकी टिकट का टाइम खत्म हो गया, बाहर निकलो और बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों को बड़ी पीड़ा से बाहर जाते देखते|
होम ग्राउंड का फायदा न तो खिलाड़ियों को मिला न ही दर्शकों को बहुत जरूरी है कि इसकी कायदे से तफ्तीश की जाए ताकि खेल के अपराधियों को पकड़ा जा सके|
Saturday, August 21, 2010
टप टप बरसा पानी और ,करते रहे हम कमेंट्री ,,वाह वाह....
आज इंदिरा गाँधी स्टेडियम में जिम्नास्टिक का टेस्ट इवेंट शुरू हुआ.हम बहुत तैयारी के साथ बैठे टीवी कमेंट्री करने ..सुरक्षा जांच वालो ने हमें पानी की बोतल नहीं लाने दी.हमारा सेब भी वापिस करवा दिया ,हमने कहा कोई नहीं ,मीडिया सेंटर में तो सब मिल ही जाएगा ,एक घंटा हुआ २ घंटे हुए. हम पानी वानी,चाय का इंतज़ार करते रहे ,पर वह न आया और न उसकी कोई खबर आई .कई घंटे लगातार बोलना फिर पानी नहीं मिलना,हमें तुरंत ईश्वर याद आ गए .उन्होंने भी बिना देर किये हमारी सुन ली ,और पानी बरसने लगा ,खूब बरसा ,अचानक मेरे मुह पर पानी की बूँद गिरी ,,उपर देखा तो छत से पानी की टप टप बूँद गिरने लगी.भगवान के घर देर है अंधेर नहीं.भगवान ने सीधा अपने घर से हमारे लिए supply भेज दी,सच में जय हो प्रभु .
Sunday, July 25, 2010
Sunday, June 27, 2010
विद्यार्थियों ने शुरु किया राष्ट्रमंडल खेलों पर ब्लॉग
राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन में अब सौ से भी कम दिन रह गये हैं
खेलों की मशाल सभी प्रतिभागी देशों में घूम कर भारत में 25 जून को प्रवेश कर
गयी .पूरा देश अब राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के लिये अपनी अपनी
भागीदारी सुनिश्चित् करने में जुट गया है तो भला दिल्ली विश्वविद्यालय
कैसे पीछे रहता! दिल्ली विशविद्यालय तो वैसे भी रग्बी -7 का मेजबान मैदान
है.चाहे मैदान की बात हो या फिर वालिंटियर की बात हो दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने अद्भुत जोश दिखाया
इसी क्रम में श्रीगुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज के स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग
तथा वेब जर्नलिज्म के विद्यार्थियों ने दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों पर ब्लॉग शुरु किया www.commonwealthgamesindelhi.blogspot.com नामक इस ब्लॉग में एक ओर खेलों के इतिहास पर भी सामग्री देने का प्रयास किया गया है ,वहीं आगामी खेलों के चल रहे टेस्ट इवेंट्स की भी कवरेज है ,साथ ही प्रयास है कि दिल्ली के बारे में भी वे जानकारियाँ दी जाएँ जो पर्यटन की दृष्टि से भी उपयोगी हों.यह ब्लॉग हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में चल रहा है
लिमका बुक ऑफ़ रिकार्ड के खेल विशेषज्ञ डॉ सुरेश कुमार लॉ के सहयोग से विद्यार्थी खेलों के रिकार्ड,खिलाड़ियों का प्रदर्शन आदि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं.गौरतलब है कि खालसा कॉलेज ने गत वर्ष देश में पहली बार स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग तथा वेब जर्नलिज्म पर सर्टिफ़िकेट कोर्स शुरु किये.इन दोनों पाठ्यक्रमों में एडमिशन ग्रेजुएशन कर रहे स्टूडेंट से लेकर नौकरीशुदा लोग तक ले सकते हैं.इन पाठ्यक्रमों में पढा़ई आडियो विजुअल पद्धति से होती है.साथ ही क्लास की रिपोर्ट ब्लॉग पर अपलोड की जाती है.तीन महीने के इन पाठ्यक्रमों में मूल्यांकन पद्धति परीक्षा आधारित न होकर प्रेजेंटेशन और फील्ड अटैचमेंट के आधार पर होती है.
जून में इन पाठ्यक्रमों की प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है
खेलों की मशाल सभी प्रतिभागी देशों में घूम कर भारत में 25 जून को प्रवेश कर
गयी .पूरा देश अब राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के लिये अपनी अपनी
भागीदारी सुनिश्चित् करने में जुट गया है तो भला दिल्ली विश्वविद्यालय
कैसे पीछे रहता! दिल्ली विशविद्यालय तो वैसे भी रग्बी -7 का मेजबान मैदान
है.चाहे मैदान की बात हो या फिर वालिंटियर की बात हो दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने अद्भुत जोश दिखाया
इसी क्रम में श्रीगुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज के स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग
तथा वेब जर्नलिज्म के विद्यार्थियों ने दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों पर ब्लॉग शुरु किया www.commonwealthgamesindelhi.blogspot.com नामक इस ब्लॉग में एक ओर खेलों के इतिहास पर भी सामग्री देने का प्रयास किया गया है ,वहीं आगामी खेलों के चल रहे टेस्ट इवेंट्स की भी कवरेज है ,साथ ही प्रयास है कि दिल्ली के बारे में भी वे जानकारियाँ दी जाएँ जो पर्यटन की दृष्टि से भी उपयोगी हों.यह ब्लॉग हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में चल रहा है
लिमका बुक ऑफ़ रिकार्ड के खेल विशेषज्ञ डॉ सुरेश कुमार लॉ के सहयोग से विद्यार्थी खेलों के रिकार्ड,खिलाड़ियों का प्रदर्शन आदि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं.गौरतलब है कि खालसा कॉलेज ने गत वर्ष देश में पहली बार स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग तथा वेब जर्नलिज्म पर सर्टिफ़िकेट कोर्स शुरु किये.इन दोनों पाठ्यक्रमों में एडमिशन ग्रेजुएशन कर रहे स्टूडेंट से लेकर नौकरीशुदा लोग तक ले सकते हैं.इन पाठ्यक्रमों में पढा़ई आडियो विजुअल पद्धति से होती है.साथ ही क्लास की रिपोर्ट ब्लॉग पर अपलोड की जाती है.तीन महीने के इन पाठ्यक्रमों में मूल्यांकन पद्धति परीक्षा आधारित न होकर प्रेजेंटेशन और फील्ड अटैचमेंट के आधार पर होती है.
जून में इन पाठ्यक्रमों की प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है
Saturday, June 19, 2010
अमेरिका में युवा हिन्दी शिविर-डॉ० सुरेन्द्र गंभीर/निदेशक – युवा हिन्दी शिविर अटलाँटा
२००७ में जब न्यूयार्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ तो उसमें अनेक
प्रवासी भारतीयों को एक बात खटकी कि उसमें प्रवासी भारतीयों की युवा पीढ़ी
के लिए कुछ नहीं था। यदि इस सम्मेलन में हमारी युवा पीढ़ी के लिए भी कुछ
कार्यक्रम होते तो प्रवासी संदर्भ में हमारी सांस्कृतिक भाषा और हमारे
मूल्यों को कुछ प्रोत्साहन मिलता। इसी विचार ने २००९ में युवा हिन्दी
संस्थान को जन्म दिया। इसी संस्थान के तत्वावधान में अमेरिका के अटलाँटा
जार्जिया प्रदेश में जून १९ से २८ तक १० दिन का भाषा शिविर युवा पीढ़ी के
१०० सदस्यों के लिए हो रहा है।
इस कार्यक्रम को जहां एक ओर अमरीकी सरकार की उदार आर्थिक सहायता प्राप्त
है वहां दूसरी ओर अमरीका के प्रतिष्ठित कई विश्वविद्यलायों और शोध
संस्थानों का समर्थन और सहयोग प्राप्त है। इस शिविर का दैनिक कार्यक्रम
और गतिविधियों का समायोजन भाषा-विज्ञान के शोध-समर्थित नियमों के आधार पर
होगा ताकि युवाओं को इस सांस्कृतिक अवगाहन से अधिकाधिक भाषा-लाभ हो और
हिन्दी भाषा में प्रवीणता को बढ़ाने के लिए उनके भविष्य के द्वार खुलें।
अमरीकी सरकार की भी यह हमसे अपेक्षा है । युवा हिन्दी संस्थान के
कार्यकर्ता उसी दिशा में पिछले कई महीनों से इसी योजना को कार्यान्वित
करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
शिविर का कार्यक्रम प्रातः नौ बजे योगाभ्यास से शुरू होगा और उसके बाद
हिन्दी शिक्षण की कक्षाएं, कंप्यूटर लैब, हस्तकला, अनेकानेक खेल
(क्रिकेट, बैडमिंटन, टेबलटैनिस, शतरंज, खो-खो, पिट्ठू आदि), नाटक, संगीत,
नेचर वॉक, सांस्कृतिक कार्यक्रम और बॉलीवुड के गरमागरम गानों के साथ नाच
का दैनिक कार्यक्रम है। दोपहर के खाने के समय भी हिन्दी के कुछ चलचित्र
दिखाए जाएंगे जिसमें सब-टाइटल रहेंगे। शिविर की सब गतिविधियों में सब
निर्दैश और सभी बातचीत हिन्दी के माध्यम से ही संपन्न होगी। शिविर में
अंग्रेज़ी का प्रयोग वर्जित है। भाषा और संस्कृति में अवगाहन और भाषा
सीखने का और उसे आत्मसात् करने का यही सहज तरीका है।
अमेरिका में हिन्दी की शिक्षा के लिए यह स्वर्णिम समय है। अमरीका सरकार
ने हिन्दी को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में स्वीकार किया है और फलस्वरूप
सभी सरकारी स्कूलों में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी को पढ़ाने के द्वार
खोल दिए गए हैं। अमेरिकी सरकार का यह मानना है कि भविष्य में आर्थिक और
राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरते हुए भारत के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय
और राजनयिक संबंधों के संदर्भ में हिन्दी का महत्व बहुत अधिक है और यह
दिन-ब-दिन बढ़ने वाला है। इसी सार्वभौमिक राजनैतिक विश्लेषण को ध्यान में
रखते हुए अमरीका की अगली पीढ़ी को दुनिया की महत्वपूर्ण भाषाओं और उनकी
संस्कृतियों के ज्ञान से लैस करना बहुत आवश्यक समझा जा रहा है और इसी
उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस दीर्घकालीन योजना की व्यवस्था हुई है ।
भाषाओं की इस महत्वपूर्ण योजना को व्हाइट हाउस के नेशनल सिक्योरिटी
लैंगवेज इनिश्येटिव के तहत क्रियान्वित किया जा रहा है।
भाषा हमारे चिंतन की वाहिका है और हर भाषा का हर मानव के कुछ विशिष्ट
मूल्यों के साथ विशेष संयोग होता है। जहां एक ओर प्रवासी युवा पीढ़ी के
सदस्य अमरीका को एक समर्थ देश बनाने में अपना योगदान देंगे वहां भविष्य
में विभिन्न क्षेत्रों में वे अपने विभिन्न व्यवसायों के लिए भी अपने
कैरियर का मार्ग प्रशस्त करेंगे। हिन्दी भाषा ज्ञान के साथ हमारी युवा
पीढ़ी के संबंध भारत के साथ भी संपुष्ट होंगे । उदीयमान भारत से लेकर
अमरीका तक सभी के भविष्य के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण दिशा है।
अमरीकी समाज में द्विभाषी लोगों की मांग बराबर बढ़ रही है और भविष्य में
यह और ज़्यादा बढ़ने वाली है। चाहे वे डॉक्टर हों, वकालत के पेशे में हों,
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में हों, सरकारी महकमों में हों – सब जगह दूसरी
भाषा पर उस भाषा से संबंधित समाजों के मूल्यों और अन्तर्निहित
विचारधाराओं को समझने वाले और उन पर अधिकारपूर्वक बात करने वालों को
वरीयता प्राप्त है। अमरीका के वर्तमान वयस्क कर्मचारियों को विदेशी
भाषाओं की शिक्षा देने के लिए सरकार के कई अपने स्कूल भी हैं जिनमें
वर्जीनिया में स्थित फ़ॉरन सर्विस इंस्टीट्यूट और मांट्रे कैलिफ़ोनिया में
स्थित डिफ़ैंस लैंग्वेज इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं।
Wednesday, June 9, 2010
मोलतोल को उप संपादक चाहिए
मोलतोल डॉट इन हिंदी वेबसाइट को तीन उप संपादक चाहिए। कॉमर्स ग्रेजुएट के साथ पत्रकारिता या बिजनैस खबरें खासकर शेयर बाजार से जुड़ी खबरें जुटाने एवं तैयार करने की जानकारी। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करने में सक्षम। अधिकतम आयु 25 वर्ष।
मोलतोल की जल्द आ रही गुजराती वेबसाइट के लिए दो उप संपादक चाहिए। कॉमर्स ग्रेजुएट के साथ पत्रकारिता या बिजनैस खबरें खासकर शेयर बाजार से जुड़ी खबरें जुटाने एवं तैयार करने की जानकारी। अंग्रेजी एवं हिंदी से भी गुजराती में अनुवाद करने में सक्षम। अधिकतम आयु 25 वर्ष। सभी नियुक्तियां मुंबई के लिए। इसके अलावा ऐसे युवा पत्रकारों की भी जरुरत है जो दूसरे शहरों में रहते हुए भी इस साइट के लिए इंटरनेट के माध्यम से कार्य कर सकें। अपना बायोडेटा info@moltol.in This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर भेजें।
मोलतोल की जल्द आ रही गुजराती वेबसाइट के लिए दो उप संपादक चाहिए। कॉमर्स ग्रेजुएट के साथ पत्रकारिता या बिजनैस खबरें खासकर शेयर बाजार से जुड़ी खबरें जुटाने एवं तैयार करने की जानकारी। अंग्रेजी एवं हिंदी से भी गुजराती में अनुवाद करने में सक्षम। अधिकतम आयु 25 वर्ष। सभी नियुक्तियां मुंबई के लिए। इसके अलावा ऐसे युवा पत्रकारों की भी जरुरत है जो दूसरे शहरों में रहते हुए भी इस साइट के लिए इंटरनेट के माध्यम से कार्य कर सकें। अपना बायोडेटा info@moltol.in This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर भेजें।
Sunday, June 6, 2010
लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों/विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, से. नि./ @ "हिन्दी भारत

वाहन प्रतीक हैं, यथार्थ नहीं। हाथी के सिर वाले, लम्बोदर गणेश जी चूहे पर वास्तव में सवारी तो नहीं कर सकते, या लक्ष्मी देवी उल्लू जैसे छोटेपक्षी पर। जब मैंने इन प्रतीकों पर वैज्ञानिक सोच के साथ शोध किया तब मुझे सुखद आश्चर्य पर सुखद आश्चर्य हुए। मैंने इन पर जो लेख लिखे और व्याख्यान दिये वे बहुत लोकप्रिय रहे।
इन लेखों को रोचक बनाना भी अनिवार्य है। किन्तु उनके पौराणिक होने का लाभ यह है कि, उदाहरणार्थ, इस प्रश्न पर कि ‘लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों? पाठकों तथा श्रोताओं में जिज्ञासा एकदम जाग उठती है। इन सारे वाहनों के वैज्ञानिक कारणों का विस्तृत वर्णन तो इस प्रपत्र में उचित नहीं। किन्तु अपनी अवधारणा को सिद्ध करने के लिये उदाहरण स्वरूप लक्ष्मी के वाहन उल्लू का संक्षिप्त वर्णन उचित होगा। यह उल्लू के लक्ष्मी जी के वाहन होने की संकल्पना कृषि युग की है। वैसे यह आज भी सत्य है कि किसान अनाज की खेती कर ‘धन’ पैदा करता है। किसान के दो प्रमुख शत्रु हैं कीड़े और चूहे। कीड़ों का सफाया तो सभी पक्षी करते रहते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं, जो इसके लिये सर्वोत्तम तरीका है। किन्तु चूहों का शिकार बहुत कम पक्षी कर पाते हैं। एक तो इसलिये कि वे काले रंग के होते हैं जो सरलता पूर्वक नहीं दिखते। साथ ही वे बहुत चपल, चौकस और चतुर होते हैं। इसलिये मुख्यतया बाज वंश के पक्षी और साँप इत्यादि इनके शिकार में कुछ हद तक सफल हो पाते हैं।
दूसरे, चूहे अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिये रात्रि में फसलों पर, अनाज पर आक्रमण करते हैं और तब बाज तथा साँप आदि भी इनका शिकार नहीं कर सकते। एक मात्र उल्लू कुल के पक्षी ही रात्रि में इनका शिकार कर सकते हैं।
जो कार्य बाज जैसे सशक्त पक्षी नहीं कर सकते, उल्लू किस तरह करते हैं? सबसे पहले तो रात्रि के अंधकार में काले चूहों का शिकार करने के लिये आँखों का अधिक संवेदनशील होना आवश्यक है। सभी स्तनपायी प्राणियों तथा पक्षियों में उल्लू की आँखें उसके शरीर की तुलना में बहुत बड़ी हैं, वरन इतनी बड़ी हैं कि वह आँखों को अपने कोटर में घुमा भी नहीं सकता जैसा कि अन्य सभी पक्षी कर सकते हैं। अब न घुमा सकने वाली कमजोरी को दूर करने के लिये वह अपनी गर्दन तेजी से तथा पूरे पीछे तक घुमा सकता है। दूसरी योग्यता, जाति पक्षी के लिये और भी कठिन है। जब उल्लू या कोई भी पक्षी चूहे पर आक्रमण करते हैं, तब उनके उड़ान की फड़फड़ाहट को सुनकर चूहे चपलता से भाग कर छिप जाते हैं। इसलिये बाज भी चूहों का शिकार अपेक्षाकृत खुले स्थानों में कर सकते हैं ताकि वे भागते हुए चूहों को भी पकड़ सकें। किन्तु चूहे अधिकांशतया खुले स्थानों के बजाय लहलहाते खेतों या झाड़ियों में छिपकर अपना आहार खोजते हैं, और वह भी रात में। वहाँ यदि चूहे ने शिकारी पक्षी की फड़फड़ाहट सुन ली तो वे तुरन्त कहीं भी छिप जाते हैं। उल्लू की दूसरी अद्वितीय योग्यता है कि उसके उड़ते समय फड़फड़ाहट की आवाज नहीं आती। यह क्षमता उसके पंखों के अस्तरों के नरम रोमों की बनावट के कारण आती है। उल्लू को तीसरी आवश्यकता होती है तेज उड़ान की क्षमता के साथ धीमी उड़ान की भी। यह तो हम विमानों के संसार में भी हमेशा देखते हैं कि तेज उड़ान वाले विमान की धीमी गति भी कम तेज उड़ने वाले विमान की धीमी गति से तेज होती है। तेज उड़ान की आवश्यकता तो उल्लू को अपने बचाव के लिये तथा ऊपर से एक बार चूहे को ‘देखने’ पर तेजी से चूहे तक पहुँचने के लिये होती है। तथा झाड़ियों आदि के पास पहुँच कर धीमी उड़ान की आवश्यकता इसलिए होती है कि वह उस घिरे स्थान में चपल चूहे को बदलती दिशाओं में भागने के बावजूद पकड़ सके। यह योग्यता भी अपने विशेष नरम परों के कारण उल्लू में है, बाज पक्षियों में नहीं।
यदि चूहा अधिकांशतया लहलहाते खेतो में या झाड़ियों में छिपते हुए अपना कार्य करता है तब उड़ते हुए पक्षी द्वारा उसे देखना तो दुर्लभ ही होगा। चूहे आपस में चूँ चूँ करते हुए एक दूसरे से सम्पर्क रखते हैं। क्या यह महीन तथा धीमी चूँ चूँ कोई पक्षी सुन सकता है? उल्लू न केवल सुन सकता है वरन सबसे अधिक संवेदनशीलता से सुन सकता है। चूहे की चूँ चूँ की प्रमुख ध्वनि–आवृत्ति 8000 हर्ट्ज़ के आसपास होती है, और उल्लू के कानों की श्रवण शक्ति 8000 हर्ट्ज़ के आसपास अधिकतम संवेदनशील होती है! साथ ही इस ऊँची आवाज का लाभ उल्लू को यह मिलता है कि वह उस आवाज को सुनकर अधिक परिशुद्धता से उसकी दिशा का निर्धारण कर सकता है। यह हुई उल्लू की चौथी अद्वितीयता।
उल्लू में एक और गुण है जो उसके काम में आता है, यद्यपि वह अद्वितीय नहीं। चूँकि उसे शीत ऋतु की रातों में भी उड़ना पड़ता है, उसके अस्तर के रोएँ उसे भयंकर शीत से बचाने में सक्षम है।यह उसकी पाँचवीं अद्वितीयता है।
उल्लू की छठवीं अद्वितीयता है उसकी छोटी चोँच। यह कैसे? चोँच हड्डियों के समान भारी होती है। इस सब गुणों के बल पर इस पृथ्वी पर चूहों का सर्वाधिक सफल शिकार उल्लू ही करते हैं। और चूहे किसानों के अनाज का सर्वाधिक नुकसान कर सकते हैं। इसलिये उल्लू किसानों के अनाज में वृद्धि करते हैं, अर्थात वे उसके घर में लक्ष्मी लाते हैं, अर्थात लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। इसकी उपरोक्त चार योग्यताओं के अतिरिक्त, जो कि वैज्ञानिक विश्लेषण से समझ में आई हैं,
लक्ष्मी का एक सामाजिक गुण भी है, जिसके फलस्वरूप उल्लू लक्ष्मी का वाहन बन सका है। किसी व्यक्ति के पास कब अचानक लक्ष्मी आ जाएगी और कब चली जाएगी, कोई नहीं जानता – प्रेम जी अचानक कुछ महीने भारत के सर्वाधिक धनवान व्यक्ति रहे, और अचानक ‘साफ्टवेअर’ उद्योग ढीला पड़ने के कारण वे नीचे गिर गये। चूँकि उल्लू के उड़ने की आहट भी नहीं आती, अतएव लक्ष्मी उस पर सवार होकर कब आ जाएँगी या चली जाएँगी, पता नहीं चलता।
यद्यपि हमारे ऋषियों के पास वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे, तथापि उनकी अवलोकन दृष्टि, विश्लेषण करने और संश्लेषण करने की शक्ति तीव्र थी। उल्लू को श्री लक्ष्मी का वाहन बनाना यह सब हमारे ऋषियों की तीक्ष्ण अवलोकन दृष्टि, घटनाओं को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि और सामाजिक–हित की भावना दर्शाता है। आमतौर पर उल्लू को लोग निशाचर मानते हैं, उसकी आवाज को अपशकुन मानते हैं, उसे खंडहर बनाने वाला मानते हैं। इसलिये आम लोगों के मन में उल्लू के प्रति सहानुभूति तथा प्रेम न होकर घृणा ही रहती है। इस दुर्भावना को ठीक करने के लिये भी उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाया गया। और यह उदाहरण कोई एक अकेला उदाहरण नहीं है। सरस्वती का वाहन हंस, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणेश जी का वाहन चूहा भी वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत समाजोपयोगी संकल्पनाएँ हैं।
इन अवधारणाओं का प्रचार अत्यंत सीमित होता यदि इन्हें पुराणों में रखकर धार्मिक रूप न दिया होता। इसलिए इस देश में उल्लू, मयूर, हंस, सारस, चकवा, नीलकंठ, तोता, सुपर्ण (गरूड़), मेंढक, गिद्ध आदि को, और भी वृक्षों को, जंगलों को इस तरह धार्मिक उपाख्यानों से जोड़कर, उनकी रक्षा अर्थात पर्यावरण की रक्षा हजारों वर्षों से की गई है। किन्तु अब अंग्रेजी की शिक्षा ने तो नहीं किन्तु अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ने हमारी आज की पीढ़ी को इस सब ज्ञान से काट दिया है। और आज हम भी पाश्चात्य संसार की तरह प्रकृति का शोषण करने में लग गये हैं। तथा पर्यावरण एवं प्रकृति का संरक्षण जो हमारी संस्कृति में रचा बसा था उसे हम भूल गये हैं। यह संरक्षण की भावना, अब कुछ पाश्चात्य प्रकृति–प्रेमियों द्वारा वापिस लाई जा रही है। एक बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन प्रतीकों का वैज्ञानिक तथा सामाजिक के अतिरिक्त
आध्यात्मिक अर्थ भी होता है। निष्कर्ष यह है कि हमारी पुरानी संस्कृति में वैज्ञानिक सोच तथा समझ है,उसके तहत हम विज्ञान पढ़ते हुए आधुनिक बनकर ‘पोषणीय उन्नति’ (सस्टेनैबल प्रोग्रैस) कर सकते हैं। आवश्यकता है विज्ञान के प्रभावी संचार की जिस हेतु पुराणों के उपाख्यान एक उत्तम दिशा दे सकते हैं। और इस तरह हम मैकाले की शिक्षा नीति (फरवरी, 1835) – “ब्रिटिश शासन का महत् उद्देश्य (भारत में (उपनिवेशों में)) यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये।” के द्वारा व्यवहार में भ्रष्ट की गई अपनी उदात्त संस्कृति की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। वे विज्ञान का प्रसार तो कम ही कर पाए यद्यपि अंग्रेजी का प्रचार–प्रसार करने में उन्होंने आशातीत सफलता पाई। हमारा उद्देश्य पाश्चात्यों की नकल करना छोड़कर, भारतीय भाषाओं में ही प्रौविज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये और तभी वह अधिक सफल भी होगा। तभी हम प्रौविज्ञान के क्षेत्र में, वास्तव में, अपनी अनुसन्धान शक्ति से, विश्व के अग्रणी देशों में समादृत नाम स्थापित कर सकेंगे।
कविता वाचक्नवी
खाते हैं हिंदी की ,बजाते हैं अंग्रेजी की-चोपड़ा-hindianuvaadak@googlegroups.com
2010/6/6 Lingual Bridge lingualbridge@gmail.com:
मित्रो, फिल्म जगत से जुड़ा चाहे कोई भी पुरस्कार समारोह हो या कोई अन्य कार्यक्रम, उसमें आप उन लगभग सभी हिंदी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और अन्य
कलाकारों को अंग्रेज़ी बोलते हुए देखेंगे-सुनेंगे जो हिंदी की बदौलत
करोड़ों हिंदी प्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं और हिंदी की वजह से ही
आज करोड़ों और अरबों रुपए कमा पाए हैं।
अगर कोई दक्षिण भारतीय कलाकार अंग्रेज़ी में बोले, तो समझ में आता है कि
शायद भली-भाँति हिंदी नहीं जानता होगा, इसीलिए अंग्रेज़ी में अपनी बात रख
रहा है, लेकिन मैं तो उन महानुभावों का उल्लेख कर रहा हूँ जो हिंदी-भाषी
राज्यों में जन्मे हैं और पले हैं और अच्छी तरह से हिंदी बोलना जानते
हैं।
मुझे यह बड़ा विचित्र लगता है कि जिस भाषा के कारण कोई कलाकार इतना यश और धन प्राप्त करता है, उसके प्रति वह इतना उदासीन भी हो सकता है और उसकी इस कदर उपेक्षा भी कर सकता है। क्या वे इसलिए अंग्रेज़ी बोलना पसन्द करते
हैं कि उनकी दृष्टि में अंग्रेज़ी "पढ़े-लिखों' और 'सुसंस्कृत' लोगों की
भाषा है और अंग्रेज़ी का पांडित्य बघारने का इससे अच्छा अवसर कोई नहीं
होगा या इसका कोई अन्य कारण आपकी समझ में आता है?
hindianuvaadak@googlegroups.com
वेब पता : http://groups.google.co.in/group/hindianuvaadak
मित्रो, फिल्म जगत से जुड़ा चाहे कोई भी पुरस्कार समारोह हो या कोई अन्य कार्यक्रम, उसमें आप उन लगभग सभी हिंदी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और अन्य
कलाकारों को अंग्रेज़ी बोलते हुए देखेंगे-सुनेंगे जो हिंदी की बदौलत
करोड़ों हिंदी प्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं और हिंदी की वजह से ही
आज करोड़ों और अरबों रुपए कमा पाए हैं।
अगर कोई दक्षिण भारतीय कलाकार अंग्रेज़ी में बोले, तो समझ में आता है कि
शायद भली-भाँति हिंदी नहीं जानता होगा, इसीलिए अंग्रेज़ी में अपनी बात रख
रहा है, लेकिन मैं तो उन महानुभावों का उल्लेख कर रहा हूँ जो हिंदी-भाषी
राज्यों में जन्मे हैं और पले हैं और अच्छी तरह से हिंदी बोलना जानते
हैं।
मुझे यह बड़ा विचित्र लगता है कि जिस भाषा के कारण कोई कलाकार इतना यश और धन प्राप्त करता है, उसके प्रति वह इतना उदासीन भी हो सकता है और उसकी इस कदर उपेक्षा भी कर सकता है। क्या वे इसलिए अंग्रेज़ी बोलना पसन्द करते
हैं कि उनकी दृष्टि में अंग्रेज़ी "पढ़े-लिखों' और 'सुसंस्कृत' लोगों की
भाषा है और अंग्रेज़ी का पांडित्य बघारने का इससे अच्छा अवसर कोई नहीं
होगा या इसका कोई अन्य कारण आपकी समझ में आता है?
hindianuvaadak@googlegroups.com
वेब पता : http://groups.google.co.in/group/hindianuvaadak
Monday, May 31, 2010
Friday, May 21, 2010
सिनेमा एवं नाटक की संयुक्त पढ़ाई एमए में हिन्दी से
नई दिल्ली। देश में सिनेमा और नाटक के संयुक्त पाठ्यक्रम की पढ़ाई पहली बार महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) में शुरू की गयी है।
विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय ने 'यूनीवार्ता' को बताया कि इस वर्ष से हमने सिनेमा और नाटक की संयुक्त पढ़ाई एम.ए में शुरू की है। यह पढ़ाई हिन्दी माध्यम से होगी। अब तक देश में नाट्य विद्या और सिनेमा की अलग-अलग पढ़ाई होती रही है।
राय ने बताया कि एम.ए में दाखिला लिखित परीक्षा की बजाय सीधे साक्षात्कार से लिया जाएगा। दाखिले के लिए आवेदन करने की अंतिम तिथि सात जून है। इसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.hindivishwa.org पर भी देखा जा सकता है। इस कोर्स से छात्रों मे रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।
विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय ने 'यूनीवार्ता' को बताया कि इस वर्ष से हमने सिनेमा और नाटक की संयुक्त पढ़ाई एम.ए में शुरू की है। यह पढ़ाई हिन्दी माध्यम से होगी। अब तक देश में नाट्य विद्या और सिनेमा की अलग-अलग पढ़ाई होती रही है।
राय ने बताया कि एम.ए में दाखिला लिखित परीक्षा की बजाय सीधे साक्षात्कार से लिया जाएगा। दाखिले के लिए आवेदन करने की अंतिम तिथि सात जून है। इसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.hindivishwa.org पर भी देखा जा सकता है। इस कोर्स से छात्रों मे रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।
Wednesday, May 12, 2010
एमबीए की परीक्षा पहली बार हिन्दी में (प्रभात खबर)/ अनुनाद
नयी दिल्ली : अगर आप हिन्दी माध्यम से एमबीए की परीक्षा देना चाहते हैं
तो महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) में
दाखिला ले सकते हैं. देश में पहली बार इस विश्वविद्यालय ने एमबीए की
परीक्षा हिन्दी में आयोजित की है. विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण
राय ने आज बताया कि दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से 250 से अधिक छात्रों ने
देश के 17 केंद्रों पर एमबीए की परीक्षा हिन्दी माध्यम से दी है. श्री
राय ने बताया कि पटना, मुजफ्फ़रपुर, धनबाद, वाराणसी, लखनऊ , इलाहाबाद,
जबलपुर, रायपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, वर्धा, नांदेड़, नंदुबार, मुंबई, जयपुर,
दिल्ली तथा नागपुर जैसे केन्द्रों पर 269 छात्रों ने परीक्षाएं दी है.
उन्होंने उम्मीद जतायी कि हिन्दी में एमबीए की परीक्षा होने से हिन्दी
भाषी छात्रों को रोजगार मिलने की संभावना बढ़ गयी है.
तो महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) में
दाखिला ले सकते हैं. देश में पहली बार इस विश्वविद्यालय ने एमबीए की
परीक्षा हिन्दी में आयोजित की है. विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण
राय ने आज बताया कि दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से 250 से अधिक छात्रों ने
देश के 17 केंद्रों पर एमबीए की परीक्षा हिन्दी माध्यम से दी है. श्री
राय ने बताया कि पटना, मुजफ्फ़रपुर, धनबाद, वाराणसी, लखनऊ , इलाहाबाद,
जबलपुर, रायपुर, सिवनी, छिंदवाड़ा, वर्धा, नांदेड़, नंदुबार, मुंबई, जयपुर,
दिल्ली तथा नागपुर जैसे केन्द्रों पर 269 छात्रों ने परीक्षाएं दी है.
उन्होंने उम्मीद जतायी कि हिन्दी में एमबीए की परीक्षा होने से हिन्दी
भाषी छात्रों को रोजगार मिलने की संभावना बढ़ गयी है.
Wednesday, May 5, 2010
मेरी पहली (वीडियो) पुस्तक: योगेन्द्र पाल
-योगेन्द्र पाल, C Programming Language, VIDEO BOOK, वीडियो बुक
मेरी पहली (वीडियो) पुस्तक: योगेन्द्र पाल
आप लोगो को यह बताते हुआ ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूँ कि मेरी पहली पुस्तक जिसको नाम दिया गया है (My First Interaction with C Programming Language) कुछ समय पहले publish हुई है और इसको publish किया है Learn By Watch नामक एक उठती हुई firm ने जिसका उद्देश्य computer शिक्षा को उन विद्यार्थियों तक पहुँचाना है जिनको प्रारंभ से English की शिक्षा नहीं मिली है, बेहतर क्षमता के होते हुए भी यह विद्यार्थी सिर्फ English में कमजोर होने की वजह से पीछे रह जाते हैं और खुद को छोटा महसूस करने लगते हैं,
पहले तो आप को बता देता हूँ कि यह कोई आम किताब नहीं है बल्कि यह एक विडियो पुस्तक (VIDEO BOOK) है, इस से सीखना और समझना कितना आसान है यह तो आप ही तय कीजिये इस लेख के नीचे उसका एक छोटा सा नमूना दिया जा रहा है.
अनुभव:
आपको बताया नहीं जा सकता कि इसको बनाना कितना कठिन था, मान लीजिये कि आप एक शिक्षक हैं और आप कई सालों से पढ़ा भी रहे हैं, पर अब आपसे कहा गया है कि आपको एक कमरे में बैठकर (जहाँ पर ना तो कोई विद्यार्थी है और ना कोई अन्य सदस्य) पढ़ाना है, तो आप किसको पढ़ाएंगे? खुद को या दीवारों को, प्रारंभ में तो यह पागलपन के अलावा कुछ लगता ही नहीं है कि आप कंप्यूटर के सामने बैठे हुए हैं, ५ अलग अलग उपकरणों के साथ आप अपने विषय को पढ़ा रहे हैं, बिना किसी विद्यार्थी के, परन्तु धीरे धीरे मुझे इसमें मजा आने लगा, मुझे विना विद्यार्थी से मिले यह पता लगाना था कि उसको कैसे में अच्छा - और अच्छा सिखा सकता हूँ.
१ घंटे के विडियो को बनाने के लिए मुझे ६ घंटे का वक़्त लगता था, और मुझे लगभग पूरी सी प्रोग्रामिंग सिखानी थी, ६ महीने के कठिन परिश्रम के बाद अब यह बनकर तैयार है, और मेरी मेहनत का नतीजा आना अभी बाकी है:-
छोटा सा नमूना आप भी देखिये, पर यह अनुरोध है कि टिप्पड़ी जरूर कीजियेगा आप नकारात्मक या सकारात्मक कैसा भी कमेन्ट छोड़ सकते हैं मै सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि इसमें कहीं कोई कमी तो नहीं है जिसको आगे की पुस्तकों में दोहराने से बचा जा सके.
http://www.youtube.com/watch?v=U2v5f0lXZ7M&feature=player_embedded
विडियो पुस्तक के पहले अध्याय की slides को नीचे दिया जा रहा है, उम्मीद है आपको पसंद आएगी
Introduction to computers
http://www.youtube.com/watch?v=cTdxd5cE_Y0&feature=player_embedded
तो अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि आखिर यह VIDEO BOOK है क्या, आपको एक बात और बताता हूँ कि विडियो बुक इंग्लिश में तो कई उपलब्ध हैं पर हिंदी में अभी तक कोई भी विडियो बुक नहीं थी, यह विडियो बुक शायद इंडिया की या फिर हो सकता है एशिया की पहली विडियो बुक हो, बहरहाल मेरा उद्देश्य सिर्फ यही है कि इससे विद्यार्थियों को सीखने में आसानी रहे
यह पुस्तक २ अलग अलग मूल्य में उपलब्ध है
१. 580/- (विडियो बुक मात्र )
२. 999/- (विडियो बुक + SERVICES)
और जानकारी के लिए आप www.learnbywatch.com को visit कीजिये, कोशिश कीजिये ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थी इसका लाभ ले सकें
-----------------------------------------------------------------------------------------------------
- कविता वाचक्नवी
http://www.google.com/profiles/kavita.vachaknavee
YouTube - Videos from this emailLoading...
एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत/प्रभु जोशी
एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत
-प्रभु जोशी
@ "हिन्दी भारत"
ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध' के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त' के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता में लौटी थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह’ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुँह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य’ का नया ‘मानचित्र’ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नालॉजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनॉलॉजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्रॉडकास्ट’ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।
कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूँकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक’ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग’ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी’ तकनॉलॉजी से काम चला रहे हैं।’
बहरहाल, पता नहीं तब, ‘सत्ता के गलियारों’ में क्या कुछ घटा और वह योजना फाइलों के अम्बार में अचानक कहीं ‘दफ्न’ हो गई। निश्चय ही इसकी वजह जानने की कोशिश, उस समय की ‘नीतिगत-उलझनों’ को रौशनी में ला सकती है। क्योंकि, ‘सूचना’ स्वयं धीरे-धीरे एक ‘सत्ता’ बन जाती है - और वह ‘राजनीतिक‘सत्ता‘ को ही सबसे पहले आघात पहुँचाती है।
दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना’ और ‘संचार’ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों’ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिण्ट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी’ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित’ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (हॉफ लिविंग एण्ड हाफ फ़ॉरगॉटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों’ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।
इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना ‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण’, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ‘भाषा रूप’ को ‘यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन’ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ‘समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं’ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर’ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद’ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।
बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ‘प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ‘पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ‘नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ‘दे आर वॉलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता’ उठ चुकी है
बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ’ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों को कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।’ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता’ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।
निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम’ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे ‘लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ‘बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘मॉस-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’
भूमण्डलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से दिये चले आ रहे हैं।
बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाजनिबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन’ और ‘कामकाजी-सम्पर्क’ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर में, आवारा- पूँजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों’ को उसकी पूर्णता तक पहुँचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।
अब यह बहुत साफ हो चुका है कि इनका श्रीमती गाँधी की उस ‘डिस्ट्रिक्ट-ब्रॉडकास्ट’ की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है, जो मूलतः ‘ग्रामीण-भारत’ के लिए थी और जिसकी प्रतिबद्धता ‘विल्बर श्राम’ के ‘विकासमूलक-प्रसारण’ की थी। यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली’, ‘रहन-सहन’, ‘बोलचाल’ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड’ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ ’ का ‘हल्लाबोल’ इस दोगले मीडिया ने शुरू कर दिया है।
आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक’ क्षेत्र में भूमण्डलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों’ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न’ बना दिये गये। मराठी या कन्नड़ में उठे विवादों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक’ भाषा करार दिया जा रहा है। अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित’ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त’ करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा’, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी’, ‘छत्तीसगढ़ी’, ‘हरियाणवी’, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।
इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी’ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री’ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार’ में जुटी टुकड़ियाँ हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर’ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार’ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना’ और ‘बिना रूके बोलते रहना’, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार’ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे’ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बॉस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता’, ‘समाज’ या ‘समूह’ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता’ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये। इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है ? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति’ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी’ क्या है ? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह’ हैं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है’, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्रॉडकास्टिंग इन थर्डवल्र्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों’ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस किया।
इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आयडल’ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चौकीदार ‘होने’ और ‘बने रहने’ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी’ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भर्त्स्ना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि’ है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।’ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार’ बन गया। वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती’, ‘मजा’, या ‘फन’ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारों द्वारा सफल दमन’ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद’ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख’ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य’ न हो। ये ‘मुक्त भारत’ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति’ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी ‘खामखाह’ याद दिलाती रहती हैं। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है।
समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जॉकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गॉरमेण्ट्स का कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्रॉण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गॉरमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला’ है। ओह! यू आर सो शॉय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आॅफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फ़्रेण्ड को पता होगा.... शॉपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से मॉल में ?’
प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नॉट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नॉट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़ा करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता’ है। रेडियो जॉकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता’ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर’ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है’, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘
दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड’ नहीं, ‘सोल्ड’ है। उसकी ‘जबान’, उसकी ‘भाषा’, उसका ‘समय’, उसकी ‘वफादारी’, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा’ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन’ नहीं ‘सुपारी’ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।
अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता’ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक’ की चिंता है, ना ‘शास्त्र’ की। ‘लोक-नियंत्रण के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ’ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है। वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं’ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल’, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध’ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन’ लगता है। ‘उदारवाद’ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र’, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता’ की ‘वर्चस्ववादी’ एवम् ‘दमनकारी’ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ’ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्र सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।’ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।
निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमण्डलीकरण भक्तिगीत’।
4, सम्वाद नगर,
नवलखा, इन्दौर
-प्रभु जोशी
@ "हिन्दी भारत"
ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध' के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त' के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता में लौटी थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह’ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुँह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य’ का नया ‘मानचित्र’ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नालॉजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनॉलॉजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्रॉडकास्ट’ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।
कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूँकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक’ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग’ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी’ तकनॉलॉजी से काम चला रहे हैं।’
बहरहाल, पता नहीं तब, ‘सत्ता के गलियारों’ में क्या कुछ घटा और वह योजना फाइलों के अम्बार में अचानक कहीं ‘दफ्न’ हो गई। निश्चय ही इसकी वजह जानने की कोशिश, उस समय की ‘नीतिगत-उलझनों’ को रौशनी में ला सकती है। क्योंकि, ‘सूचना’ स्वयं धीरे-धीरे एक ‘सत्ता’ बन जाती है - और वह ‘राजनीतिक‘सत्ता‘ को ही सबसे पहले आघात पहुँचाती है।
दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना’ और ‘संचार’ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों’ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिण्ट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी’ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित’ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (हॉफ लिविंग एण्ड हाफ फ़ॉरगॉटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों’ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।
इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना ‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण’, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ‘भाषा रूप’ को ‘यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन’ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ‘समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं’ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर’ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद’ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।
बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ‘प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ‘पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ‘नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ‘दे आर वॉलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता’ उठ चुकी है
बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ’ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों को कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।’ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता’ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।
निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम’ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे ‘लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ‘बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘मॉस-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’
भूमण्डलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से दिये चले आ रहे हैं।
बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाजनिबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन’ और ‘कामकाजी-सम्पर्क’ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर में, आवारा- पूँजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों’ को उसकी पूर्णता तक पहुँचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।
अब यह बहुत साफ हो चुका है कि इनका श्रीमती गाँधी की उस ‘डिस्ट्रिक्ट-ब्रॉडकास्ट’ की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है, जो मूलतः ‘ग्रामीण-भारत’ के लिए थी और जिसकी प्रतिबद्धता ‘विल्बर श्राम’ के ‘विकासमूलक-प्रसारण’ की थी। यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली’, ‘रहन-सहन’, ‘बोलचाल’ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड’ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ ’ का ‘हल्लाबोल’ इस दोगले मीडिया ने शुरू कर दिया है।
आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक’ क्षेत्र में भूमण्डलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों’ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न’ बना दिये गये। मराठी या कन्नड़ में उठे विवादों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक’ भाषा करार दिया जा रहा है। अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित’ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त’ करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा’, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी’, ‘छत्तीसगढ़ी’, ‘हरियाणवी’, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।
इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी’ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री’ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार’ में जुटी टुकड़ियाँ हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर’ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार’ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना’ और ‘बिना रूके बोलते रहना’, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार’ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे’ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बॉस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता’, ‘समाज’ या ‘समूह’ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता’ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये। इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है ? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति’ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी’ क्या है ? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह’ हैं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है’, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्रॉडकास्टिंग इन थर्डवल्र्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों’ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस किया।
इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आयडल’ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चौकीदार ‘होने’ और ‘बने रहने’ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी’ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भर्त्स्ना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि’ है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।’ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार’ बन गया। वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती’, ‘मजा’, या ‘फन’ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारों द्वारा सफल दमन’ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद’ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख’ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य’ न हो। ये ‘मुक्त भारत’ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति’ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी ‘खामखाह’ याद दिलाती रहती हैं। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है।
समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जॉकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गॉरमेण्ट्स का कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्रॉण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गॉरमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला’ है। ओह! यू आर सो शॉय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आॅफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फ़्रेण्ड को पता होगा.... शॉपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से मॉल में ?’
प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नॉट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नॉट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़ा करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता’ है। रेडियो जॉकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता’ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर’ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है’, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘
दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड’ नहीं, ‘सोल्ड’ है। उसकी ‘जबान’, उसकी ‘भाषा’, उसका ‘समय’, उसकी ‘वफादारी’, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा’ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन’ नहीं ‘सुपारी’ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।
अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता’ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक’ की चिंता है, ना ‘शास्त्र’ की। ‘लोक-नियंत्रण के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ’ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है। वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं’ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल’, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध’ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन’ लगता है। ‘उदारवाद’ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र’, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता’ की ‘वर्चस्ववादी’ एवम् ‘दमनकारी’ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ’ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्र सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।’ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।
निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमण्डलीकरण भक्तिगीत’।
4, सम्वाद नगर,
नवलखा, इन्दौर
Monday, May 3, 2010
क्रिकेट की बीमारी और गुलामी/डॉ. वेदप्रताप वैदिक/हिन्दी-भारत पर
शशि थरूर और ललित मोदी तो बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं। असली बीमारी तो खुद क्रिकेट ही है। क्रिकेट खेल नहीं है, बीमारी है। यह कैसा खेल है, जिसमें ११ खिलाड़ियों की टीम में से सिर्फ एक खेलता है और शेष १० बैठे रहते हैं ? विरोधी टीम के बाकी ११ खिलाड़ी खड़े रहते हैं। उनमें से भी एक रह-रहकर गेंद फेंकता है। कुल २२ खिलाड़ियों में २० तो ज्यादातर वक्त निठल्ले बने रहते हैं, ऐसे खेल से कौन-सा स्वास्थ्य लाभ होता है ? पाँच-पाँच दिन तक दिन भर चलने वाला यह खेल क्या खेल कहलाने के लायक है ? जिंदगी में खेल की भूमिका क्या है ? काम और खेल के बीच कोई अनुपात होना चाहिए या नहीं ? सारे काम-धाम छोड़कर अगर आप सिर्फ खेल ही खेलते रहें तो खाएँगे क्या ? जिंदा कैसे रहेंगे ? क्रिकेट का खेल ब्रिटेन में चलाया ही उन लोगों ने था, जिन्हें कमाने-धमाने की चिंता नहीं थी। दो सामंत खेलते थे। एक ‘बेटिंग’ करता था और दूसरा ‘बॉलिंग’ ! शेष नौकर-चाकर पदते थे। दौड़कर गेंद पकड़ते थे और उसे लाकर ‘बॉलर’ को देते थे। यह सामंती खेल है। अय्याशों और आरामखोरों का खेल ! इसीलिए इस खेल के खिलौने भी खर्चीले होते हैं। जैसे रात को शराबखोरी मनोरंजन का साधन होती है, वैसे ही दिन में क्रिकेट फालतू वक्त काटने का साधन होता है। दो आदमी खेलें और २० पदें, इससे बढ़कर अहं की तुष्टि क्या हो सकती है? यह मनोरंजनों का मनोरंजन है। नशों का नशा है। असाध्य रोग है।
अंग्रेजों का यह सामंती रोग उनके गुलामों की रग-रग में फैल गया है। यदि अंग्रेज के पूर्व-गुलाम राष्ट्रों को छोड़ दें तो दुनिया का कौन सा स्वतंत्र राष्ट्र है, जहाँ क्रिकेट का बोलबाला है? ‘इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल’ के जिन दस राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अधिकार है, वे सब के सब अंग्रेज के भूतपूर्व गुलाम-राष्ट्र हैं। चार तो अकेले दक्षिण एशिया में हैं - भारत,पाक, बांग्लादेश और श्रीलंका ! कोई यह क्यों नहीं पूछता कि इन दस देशों में अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र नहीं हैं, जो ओलम्पिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल जीतते हैं? यदि क्रिकेट दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता तो ये समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी उपेक्षा क्यों करते ? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि इस खेल में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं। क्रिकेट के प्रति भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के प्रति है। अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन ‘भद्र भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा, वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है। अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी की निरंतरता के प्रतीक हैं।
जैसे अंग्रेजी भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बड़ा साधन है, वैसे ही क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है। क्रिकेट के चस्के ने भारत के पारंपरिक खेलों, अखाड़ों और कसरतों को हाशिए में सरका दिया है। क्रिकेट पैसा, प्रतिष्ठा और प्रचार का पर्याय बन गया है। देश के करोड़ों ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग यह मंहगा खेल स्वयं नहीं खेल सकते लेकिन देश के उदीयमान मध्यम वर्ग ने इन लोगों को भी क्रिकेट के मोह-जाल में फँसा लिया है। आई पी एल जैसी संस्था के पास सिर्फ तीन साल में अरबों रूपए कहाँ से इकटठे हो गए ? उसने टी वी चैनलों, रेडियो और अखबारों का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया। भारतीयों के दिलो-दिमाग में छिपी गुलामी की बीमारी को थपकियाँ दीं। जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भोले लोग अपने बच्चों को अपना पेट काटकर पढ़ाते हैं, वैसे ही लोग क्रिकेट-मैचों के टिकिट खरीदते हैं, टीवी से चिपके बैठे रहते हैं और खिलाड़ियों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं। क्रिकेट-मैच के दिनों में करोड़ों लोग जिस तरह निठल्ले हो जाते हैं, उससे देश का कितना नुकसान होता है, इसका हिसाब किसी ने तैयार किया है, क्या ? क्रिकेट-मैच आखिरकर एक खेल ही तो है, जो घोंघा-गति से चलता रहता है। यह कोई रामायण या महाभारत का सीरियल तो नहीं है। ये सीरियल भी दिन भर नहीं चलते। घंटे-आधे-घंटे से ज्यादा नहीं ! कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने देश में धन और समय की इस सार्वजनिक बर्बादी को कैसे बर्दाश्त करती है, समझ में नहीं आता।
समझ में कैसे आएगा ? हमारे नेता जैसे अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे क्रिकेट के पीछे पगलाए रहते हैं। अब देश में कोई राममनोहर लोहिया तो है नहीं, जो गुलामी के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे। अब नेताओं में होड़ यह लगी हुई है कि क्रिकेट के दूध पर जम रही मोटी मलाई पर कौन कितना हाथ साफ करता है। बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेता क्रिकेट के इस दलदल में बुरी तरह से फंसे हुए हैं। क्रिकेट और राजनीति के बीच जबर्दस्त जुगलबंदी चल रही है। दोनों ही खेल हैं। दोनों के लक्ष्य भी एक-जैसे ही हैं। सत्ता और पत्ता ! सेवा और मनोरंजन तो बस बहाने हैं। क्रिकेट ने राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। पैसा कमाने में क्रिकेट निरंतर चौके और छक्के लगा रहा है। उसकी गेंद कानून के सिर के ऊपर से निकल जाती है। खेल और रिश्वत, खेल और अपराध, खेल और नशा, खेल और दुराचार तथा खेल और तस्करी एक-दूसरे में गडडमडड हो गए हैं। ये सब क्रिकेट की रखैलें हैं। इन रखैलों से क्रिकेट को कौन मुक्त करेगा ? रखैलों के इस प्रचंड प्रवाह के विरूद्ध कौन तैर सकता है? जाहिर है कि यह काम हमारे नेताओं के बस का नहीं है। वे नेता नहीं हैं, पिछलग्गू हैं, भीड़ के पिछलग्गू ! इस मर्ज की दवा पिछलग्गुओं के पास नहीं, भीड़ के पास ही है। जिस दिन भीड़ यह समझ जाएगी कि क्रिकेट का खेल बीमारी है, गुलामी है, सामंती है, उसी दिन भारत में क्रिकेट को खेल की तरह खेला जाएगा। भारत में क्रिकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? लेकिन खेल और भाषा यदि आजाद भारत की औपनिवेशिक बेड़ियाँ बनी रहें तो उन्हें फिलहाल तोड़ना या तगड़ा झटका देना ही बेहतर होगा।
अंग्रेजों का यह सामंती रोग उनके गुलामों की रग-रग में फैल गया है। यदि अंग्रेज के पूर्व-गुलाम राष्ट्रों को छोड़ दें तो दुनिया का कौन सा स्वतंत्र राष्ट्र है, जहाँ क्रिकेट का बोलबाला है? ‘इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल’ के जिन दस राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अधिकार है, वे सब के सब अंग्रेज के भूतपूर्व गुलाम-राष्ट्र हैं। चार तो अकेले दक्षिण एशिया में हैं - भारत,पाक, बांग्लादेश और श्रीलंका ! कोई यह क्यों नहीं पूछता कि इन दस देशों में अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र नहीं हैं, जो ओलम्पिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल जीतते हैं? यदि क्रिकेट दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता तो ये समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी उपेक्षा क्यों करते ? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि इस खेल में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं। क्रिकेट के प्रति भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के प्रति है। अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन ‘भद्र भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा, वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है। अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी की निरंतरता के प्रतीक हैं।
जैसे अंग्रेजी भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बड़ा साधन है, वैसे ही क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है। क्रिकेट के चस्के ने भारत के पारंपरिक खेलों, अखाड़ों और कसरतों को हाशिए में सरका दिया है। क्रिकेट पैसा, प्रतिष्ठा और प्रचार का पर्याय बन गया है। देश के करोड़ों ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग यह मंहगा खेल स्वयं नहीं खेल सकते लेकिन देश के उदीयमान मध्यम वर्ग ने इन लोगों को भी क्रिकेट के मोह-जाल में फँसा लिया है। आई पी एल जैसी संस्था के पास सिर्फ तीन साल में अरबों रूपए कहाँ से इकटठे हो गए ? उसने टी वी चैनलों, रेडियो और अखबारों का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया। भारतीयों के दिलो-दिमाग में छिपी गुलामी की बीमारी को थपकियाँ दीं। जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भोले लोग अपने बच्चों को अपना पेट काटकर पढ़ाते हैं, वैसे ही लोग क्रिकेट-मैचों के टिकिट खरीदते हैं, टीवी से चिपके बैठे रहते हैं और खिलाड़ियों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं। क्रिकेट-मैच के दिनों में करोड़ों लोग जिस तरह निठल्ले हो जाते हैं, उससे देश का कितना नुकसान होता है, इसका हिसाब किसी ने तैयार किया है, क्या ? क्रिकेट-मैच आखिरकर एक खेल ही तो है, जो घोंघा-गति से चलता रहता है। यह कोई रामायण या महाभारत का सीरियल तो नहीं है। ये सीरियल भी दिन भर नहीं चलते। घंटे-आधे-घंटे से ज्यादा नहीं ! कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने देश में धन और समय की इस सार्वजनिक बर्बादी को कैसे बर्दाश्त करती है, समझ में नहीं आता।
समझ में कैसे आएगा ? हमारे नेता जैसे अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे क्रिकेट के पीछे पगलाए रहते हैं। अब देश में कोई राममनोहर लोहिया तो है नहीं, जो गुलामी के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे। अब नेताओं में होड़ यह लगी हुई है कि क्रिकेट के दूध पर जम रही मोटी मलाई पर कौन कितना हाथ साफ करता है। बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेता क्रिकेट के इस दलदल में बुरी तरह से फंसे हुए हैं। क्रिकेट और राजनीति के बीच जबर्दस्त जुगलबंदी चल रही है। दोनों ही खेल हैं। दोनों के लक्ष्य भी एक-जैसे ही हैं। सत्ता और पत्ता ! सेवा और मनोरंजन तो बस बहाने हैं। क्रिकेट ने राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। पैसा कमाने में क्रिकेट निरंतर चौके और छक्के लगा रहा है। उसकी गेंद कानून के सिर के ऊपर से निकल जाती है। खेल और रिश्वत, खेल और अपराध, खेल और नशा, खेल और दुराचार तथा खेल और तस्करी एक-दूसरे में गडडमडड हो गए हैं। ये सब क्रिकेट की रखैलें हैं। इन रखैलों से क्रिकेट को कौन मुक्त करेगा ? रखैलों के इस प्रचंड प्रवाह के विरूद्ध कौन तैर सकता है? जाहिर है कि यह काम हमारे नेताओं के बस का नहीं है। वे नेता नहीं हैं, पिछलग्गू हैं, भीड़ के पिछलग्गू ! इस मर्ज की दवा पिछलग्गुओं के पास नहीं, भीड़ के पास ही है। जिस दिन भीड़ यह समझ जाएगी कि क्रिकेट का खेल बीमारी है, गुलामी है, सामंती है, उसी दिन भारत में क्रिकेट को खेल की तरह खेला जाएगा। भारत में क्रिकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? लेकिन खेल और भाषा यदि आजाद भारत की औपनिवेशिक बेड़ियाँ बनी रहें तो उन्हें फिलहाल तोड़ना या तगड़ा झटका देना ही बेहतर होगा।
भारत में क्रिकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? डॉ.वैदिक
•अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन
‘भद्र भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा,
वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है। अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी
की निरंतरता के प्रतीक हैं।
•जैसे अंग्रेजी भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बड़ा साधन है, वैसे ही
क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है।
•जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भोले लोग अपने बच्चों को अपना पेट
काटकर पढ़ाते हैं, वैसे ही लोग क्रिकेट-मैचों के टिकिट खरीदते हैं, टीवी
से चिपके बैठे रहते हैं और खिलाड़ियों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं।
•हमारे नेता जैसे अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे क्रिकेट के
पीछे पगलाए रहते हैं। अब देश में कोई राममनोहर लोहिया तो है नहीं, जो
गुलामी के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे।
•भारत में क्रिकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो
किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? लेकिन खेल और भाषा यदि आजाद भारत की
औपनिवेशिक बेड़ियाँ बनी रहें तो उन्हें फिलहाल तोड़ना या तगड़ा झटका देना
ही बेहतर होगा।
Tuesday, April 27, 2010
Azab U.p.ki Gazab bizli
Sunday, April 18, 2010
News Writing/Rachel Deahl, former About.com Guide
How do you write a news story? News writing follows a basic formula; there are key elements every news story follows. While styles can diverge more dramatically depending on the kind of story -– a feature story may look and sound very different than a hard news one -- all news stories are cut from the same mold. The first element of news writing is, of course, to deliver the news.
Most people have heard of the 5 W’s, even if they’ve never taken a journalism class. The W’s in question, as you probably know, refer to the Who, What, When, Where and Why that every story should address. Depending on what the story is, how and when you answer those W’s may change. If, for example, you’re reporting on a drive-by shooting in a city, you’ll likely start with where the crime happened (what street or area of town for the local paper) and who was involved (if you don’t have names, or the people are regular citizens, you might refer to notable affiliations if, say, the victim and presumed perpetrator were gang members).
Figuring out what details to give a reader, and when, is key in constructing a story. The answer, of course, depends on the facts. If you’re working on the above story, and the murder happens to be one of a string of similar crimes, that may be the point you open the story with. If, however, the above story revolved around someone of note being shot, that might be what you start your piece with. (A story about a notable name being shot is a very different story than one about a private. The latter might speak more to ongoing local violence while the former is a story in and of itself -- X person has been killed and here’s what X person was known for.)
Crafting a Lede
A lede, which is a journalism slang term for the first sentence or two of a story (i.e. lead), is an incredibly important part of the process. You need to hook readers with your lede and, in some cases (as discussed above), relay the important parts of your story. You need to draw a reader in while telling him why the story matters.
Like all forms of writing, there’s no hard and fast rule about what makes a great lede. A good lede changes depending on the story you’re writing. One of the best ways to get familiar with what a good lede is, is to read. Read lots of different stories. Read breaking news stories. Read features. Read reviews. Ledes vary wildly but, you’ll start to notice patterns and, more importantly, what kinds of ledes you like and feel are effective. You can get more basics from this piece from the University of Arkansas on ledes, but I suggest following it up with lots of reading.
Getting Your Nutgraf
A nutgraf, another journalism slang term, is the summarization of what the story’s about. A nutgraf (also written with as “nut graf”) can be a sentence or a paragraph and, sometimes, may also be your lede.
Nutgrafs are incredibly important, and some might argue the heart of a story, since they relay why the story matters. A nutgraf needs to address why the story is being written, whether the piece is about something like the aforementioned murder, or a profile of a famous celebrity. Like ledes, nutgrafs vary wildly from story to story. Nutgrafs can also be harder to identify than ledes so a good exercise to read lots of different stories and try to find the nutgraf. (If you do this outside of a classroom setting, it might be a good idea to find someone who can go over your findings with you.)
How Style Comes Into Play
The basics outlined above apply directly to all stories but, most obviously, to your classic news story. That said all stories have ledes and nutgrafs, no matter what they’re about or where you find them. These elements are applied differently, and often more subtley, in long-form journalism and feature stories, but they’re still there. All (good) stories have ledes and nutgraf.
I’ve said elsewhere on this site that the best way to become a better writer is to read more. I’ve gotten this piece of advice and I know others who’ve given it. One of the best ways to see how the basic elements of news writing can be applied to wildly different stories is to read, back to back, three very different pieces. For this exercise, I suggest reading the lead story on any major paper. The front page of a paper (online and in print) offers the biggest news stories of the day and there you’ll find straight, hard news. It might be local, it might be international. Then hit the features section of the paper. Check out The Arts section of the Times or, say, the Washington Post’s Arts & Living section, and read a review then another trend story. Then read a piece of long-form journalism in a magazine like The New Yorker or Esquire. (In The New Yorker nearly every article, save the reviews and pieces from Talk of the Town, is an example of long-form journalism.)
Now think about how different each piece reads. Find the nutgraf in each story and pay attention to how much each lede varies. Notice that some stories have nutgrafs that appear well below the lede, and others begin with the nutgraf. Notice how the nutgraf is more obvious in the news stories, than in the features or the magazine stories. All these stories rely on the basic elements of news writing, but do so in different styles. This exercise is good for giving a sense of the breadth of journalism, and how differently the rules of news writing can be applied.
This piece, from University of Colorado, outlines the basics of constructing a news story
Most people have heard of the 5 W’s, even if they’ve never taken a journalism class. The W’s in question, as you probably know, refer to the Who, What, When, Where and Why that every story should address. Depending on what the story is, how and when you answer those W’s may change. If, for example, you’re reporting on a drive-by shooting in a city, you’ll likely start with where the crime happened (what street or area of town for the local paper) and who was involved (if you don’t have names, or the people are regular citizens, you might refer to notable affiliations if, say, the victim and presumed perpetrator were gang members).
Figuring out what details to give a reader, and when, is key in constructing a story. The answer, of course, depends on the facts. If you’re working on the above story, and the murder happens to be one of a string of similar crimes, that may be the point you open the story with. If, however, the above story revolved around someone of note being shot, that might be what you start your piece with. (A story about a notable name being shot is a very different story than one about a private. The latter might speak more to ongoing local violence while the former is a story in and of itself -- X person has been killed and here’s what X person was known for.)
Crafting a Lede
A lede, which is a journalism slang term for the first sentence or two of a story (i.e. lead), is an incredibly important part of the process. You need to hook readers with your lede and, in some cases (as discussed above), relay the important parts of your story. You need to draw a reader in while telling him why the story matters.
Like all forms of writing, there’s no hard and fast rule about what makes a great lede. A good lede changes depending on the story you’re writing. One of the best ways to get familiar with what a good lede is, is to read. Read lots of different stories. Read breaking news stories. Read features. Read reviews. Ledes vary wildly but, you’ll start to notice patterns and, more importantly, what kinds of ledes you like and feel are effective. You can get more basics from this piece from the University of Arkansas on ledes, but I suggest following it up with lots of reading.
Getting Your Nutgraf
A nutgraf, another journalism slang term, is the summarization of what the story’s about. A nutgraf (also written with as “nut graf”) can be a sentence or a paragraph and, sometimes, may also be your lede.
Nutgrafs are incredibly important, and some might argue the heart of a story, since they relay why the story matters. A nutgraf needs to address why the story is being written, whether the piece is about something like the aforementioned murder, or a profile of a famous celebrity. Like ledes, nutgrafs vary wildly from story to story. Nutgrafs can also be harder to identify than ledes so a good exercise to read lots of different stories and try to find the nutgraf. (If you do this outside of a classroom setting, it might be a good idea to find someone who can go over your findings with you.)
How Style Comes Into Play
The basics outlined above apply directly to all stories but, most obviously, to your classic news story. That said all stories have ledes and nutgrafs, no matter what they’re about or where you find them. These elements are applied differently, and often more subtley, in long-form journalism and feature stories, but they’re still there. All (good) stories have ledes and nutgraf.
I’ve said elsewhere on this site that the best way to become a better writer is to read more. I’ve gotten this piece of advice and I know others who’ve given it. One of the best ways to see how the basic elements of news writing can be applied to wildly different stories is to read, back to back, three very different pieces. For this exercise, I suggest reading the lead story on any major paper. The front page of a paper (online and in print) offers the biggest news stories of the day and there you’ll find straight, hard news. It might be local, it might be international. Then hit the features section of the paper. Check out The Arts section of the Times or, say, the Washington Post’s Arts & Living section, and read a review then another trend story. Then read a piece of long-form journalism in a magazine like The New Yorker or Esquire. (In The New Yorker nearly every article, save the reviews and pieces from Talk of the Town, is an example of long-form journalism.)
Now think about how different each piece reads. Find the nutgraf in each story and pay attention to how much each lede varies. Notice that some stories have nutgrafs that appear well below the lede, and others begin with the nutgraf. Notice how the nutgraf is more obvious in the news stories, than in the features or the magazine stories. All these stories rely on the basic elements of news writing, but do so in different styles. This exercise is good for giving a sense of the breadth of journalism, and how differently the rules of news writing can be applied.
This piece, from University of Colorado, outlines the basics of constructing a news story
अंग्रेजी में देसी जासूसी/Hindustan
http://www.beta.livehindustan.com/news/editorial/subeditorial/57-116-97619.html
अंग्रेजी में देसी जासूसी
हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को टेलीविजन के प्रसार की वजह से बड़ा नुकसान
हुआ है। वरना एक जमाने में रूमानी, घरेलू या जासूसी उपन्यासों का बड़ा बाजार था, लेकिन अब कुछ अच्छे संकेत मिल रहे हैं। एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था ने इब्ने सफी के उपन्यासों को फिर से प्रकाशित किया है और उन्हें शुरू में अच्छी खासी व्यावसायिक सफलता मिली है।
एक और बड़े प्रकाशक गुलशन नंदा के उपन्यासों के अधिकार लेने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है इन्हें भी अच्छी बिक्री की उम्मीद है। एक और दिलचस्प बात यह हुई है कि इब्ने सफी और सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी उपन्यास अंग्रेजी में अनूदित होकर छपे हैं और लोगों ने इन अनुवादों में काफी दिलचस्पी ली है। यानी अंग्रेजीदां लोगों को भी उर्दू-हिन्दी के जासूसीसाहित्य में कुछ बात नजर आई है।अभी तक जासूसी उपन्यासों का प्रवाह इकतरफा ही था यानी अंग्रेजी से हिंदीकी ओर। कुछ उपन्यास बाकायदा अनुवाद होते थे, कुछ को कुछ हेराफेरी के साथ देसी माहौल में ढाल दिया जाता था। जैसे हिंदी सिनेमा वाले हॉलीवुड की फिल्मों के साथ करते हैं। यह इकतरफा रिश्ता स्वाभाविक इसलिए भी था क्योंकि अंग्रेजी में जासूसी उपन्यासों की परंपरा काफी पुरानी है और वहां इस विधा में ढेर-सी किताबें भी हैं।
आर्थर कॉनन डॉयल, अर्ल स्टेनली गार्डनर, अगाथा क्रिस्टी से लेकर जॉन लकार तक बड़े प्रतिष्ठित जासूसी कथा लेखक हुए हैं। लेकिन अगर उर्दू-हिंदी के लेखक अंग्रेजी में जा रहे हैं तो यह कुछ उलटी गंगा बहाने जैसा है।
इसकी कई वजहें हो सकती हैं। एक तो यह कि जासूसी उपन्यासों की असली ताकत उनके स्थायी चरित्र और उनका माहौल होता है।इब्ने सफी के उपन्यास का माहौल आपको पचास-साठ साल पुराने जमाने में ले जाता है। यह मुमकिन है कि अंग्रेजी जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले लोगों को इन उपन्यासों में यह माहौल और इसके चरित्र दिलचस्प लगें। भारत में अंग्रेजी पढ़ने वालों की बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो अंग्रेजी को
अंग्रेजियत से नहीं जोड़ते, वे लोग इन उपन्यासों के देसीपन से जुड़ सकते हैं और जो लोग भारतीयता से उतने परिचित नहीं हैं, उनके लिए इनका नयापन ताजा लगे।ये दोनों ही लेखक मौलिक हैं, इब्ने सफी इतने ईमानदार थे कि उन्होंने अपने दो उपन्यासों का कथानक अंग्रेजी उपन्यासों से लिया तो इसका स्पष्ट उल्लेख भी किया। भारत और हिन्दी की आर्थिक सामाजिक हैसियत बेहतर हुई है इसलिए उसके लोकप्रिय साहित्य की ओर लोगों का ध्यान गया है।
लोकप्रिय साहित्य को बौद्धिक समाज में नीची नजरों से देखा जाता है लेकिन समाज में पढ़ने की आदत बनाने में इसका बड़ा योगदान है। जिस समाज में लोकप्रिय साहित्य पढ़ने का चलन कम हो जाता है उसमें अभिजात साहित्य की जगह भी कम हो जाती है।लोकप्रिय संस्कृति का भी प्रामाणिक आईना लोकप्रिय साहित्य होता है, लेकिन
अब तक हिन्दी के रूमानी या जासूसी साहित्य को गंभीरता से देखा नहीं गया है। हिन्दी समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए अंग्रेजी का ठप्पा जरूरी होता है, हो सकता है कि इब्ने सफी और सुरेन्द्र मोहन पाठक के अंग्रेजी में
जाने से ‘फुटपाथिया’ कहलाने वाले साहित्य का दर्जा थोड़ा ऊपर मान लिया जाए। अब अनुवाद का रिश्ता दोतरफा हो रहा है और शायद हिन्दी में अच्छा जासूसी साहित्य लिखने वाले नए लेखक आएं।
अंग्रेजी में देसी जासूसी
हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को टेलीविजन के प्रसार की वजह से बड़ा नुकसान
हुआ है। वरना एक जमाने में रूमानी, घरेलू या जासूसी उपन्यासों का बड़ा बाजार था, लेकिन अब कुछ अच्छे संकेत मिल रहे हैं। एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था ने इब्ने सफी के उपन्यासों को फिर से प्रकाशित किया है और उन्हें शुरू में अच्छी खासी व्यावसायिक सफलता मिली है।

आर्थर कॉनन डॉयल, अर्ल स्टेनली गार्डनर, अगाथा क्रिस्टी से लेकर जॉन लकार तक बड़े प्रतिष्ठित जासूसी कथा लेखक हुए हैं। लेकिन अगर उर्दू-हिंदी के लेखक अंग्रेजी में जा रहे हैं तो यह कुछ उलटी गंगा बहाने जैसा है।
इसकी कई वजहें हो सकती हैं। एक तो यह कि जासूसी उपन्यासों की असली ताकत उनके स्थायी चरित्र और उनका माहौल होता है।इब्ने सफी के उपन्यास का माहौल आपको पचास-साठ साल पुराने जमाने में ले जाता है। यह मुमकिन है कि अंग्रेजी जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले लोगों को इन उपन्यासों में यह माहौल और इसके चरित्र दिलचस्प लगें। भारत में अंग्रेजी पढ़ने वालों की बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो अंग्रेजी को
अंग्रेजियत से नहीं जोड़ते, वे लोग इन उपन्यासों के देसीपन से जुड़ सकते हैं और जो लोग भारतीयता से उतने परिचित नहीं हैं, उनके लिए इनका नयापन ताजा लगे।ये दोनों ही लेखक मौलिक हैं, इब्ने सफी इतने ईमानदार थे कि उन्होंने अपने दो उपन्यासों का कथानक अंग्रेजी उपन्यासों से लिया तो इसका स्पष्ट उल्लेख भी किया। भारत और हिन्दी की आर्थिक सामाजिक हैसियत बेहतर हुई है इसलिए उसके लोकप्रिय साहित्य की ओर लोगों का ध्यान गया है।
लोकप्रिय साहित्य को बौद्धिक समाज में नीची नजरों से देखा जाता है लेकिन समाज में पढ़ने की आदत बनाने में इसका बड़ा योगदान है। जिस समाज में लोकप्रिय साहित्य पढ़ने का चलन कम हो जाता है उसमें अभिजात साहित्य की जगह भी कम हो जाती है।लोकप्रिय संस्कृति का भी प्रामाणिक आईना लोकप्रिय साहित्य होता है, लेकिन
अब तक हिन्दी के रूमानी या जासूसी साहित्य को गंभीरता से देखा नहीं गया है। हिन्दी समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए अंग्रेजी का ठप्पा जरूरी होता है, हो सकता है कि इब्ने सफी और सुरेन्द्र मोहन पाठक के अंग्रेजी में
जाने से ‘फुटपाथिया’ कहलाने वाले साहित्य का दर्जा थोड़ा ऊपर मान लिया जाए। अब अनुवाद का रिश्ता दोतरफा हो रहा है और शायद हिन्दी में अच्छा जासूसी साहित्य लिखने वाले नए लेखक आएं।
Wednesday, April 14, 2010
Wednesday, April 7, 2010
Sunday, April 4, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी। इस पद्य में कबीर साहब अपनी उलटवासी वाणी के माध्यम से लोगों की अज्ञानता पर व्यंग्य किये हैं कि ...
-
रविवार, अगस्त 28, 2011 दिल्ली में लहलहाती लेखिकाओं की फसल Issue Dated: सितंबर 20, 2011, नई दिल्ली एक भोजपुरी कहावत है-लइका के पढ़ावऽ,...
-
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभ...