पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।/कबीरदास

 पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।

इस पद्य में कबीर साहब अपनी उलटवासी वाणी के माध्यम से लोगों की अज्ञानता पर व्यंग्य किये हैं कि सरोवर, नदी या फिर समुद्र में पानी के बीच रहकर भी मछली प्यासी है. मुझे यह देखसुनकर हंसी आ रही है. कबीर साहब की इस वाणी का वस्तुतः अर्थ यह है कि पूरी सृष्टि एक सरोवर, नदी या कहिये समुद्र के सदृश है. उसका जल ब्रह्म यानि परमात्मा का प्रतीक है और मछली जीवात्मा यानि मनुष्य की प्रतीक है. परमात्मा के बीच रहकर भी लोग उनसे अनजान हैं और अज्ञानतावश परमात्मा को यहां वहां भटकते हुए ढूंढ रहे हैं. जीव ब्रह्म का अंश है और ब्रह्म यानि परमात्मा का अंश होते हुए भी उसे इसका ज्ञान नहीं है, क्योंकि जीव मायाधीन होकर अपने ब्रह्म स्वरूप को भुला बैठा है.

आतम ज्ञान बिना नर भटके, कोई मथुरा कोई काशी।
मिरगा नाभि बसे कस्तूरी, बन बन फिरत उदासी॥
पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी॥

आत्मज्ञान के अभाव में मनुष्य धार्मिक स्थलों पर यत्र तत्र भटक रहा है. भगवान् की खोज में कोई मथुरा भाग रहा है तो कोई काशी. अधिकतर धार्मिक स्थल मनुष्य को ब्रह्म प्राप्ति का उचित मार्ग नहीं सुझा पा रहे हैं, क्योंकि ज्यादातर धार्मिक स्थलों के पुजारी खुद ही उस सत्य से अनजान हैं. कबीर साहब कहते हैं कि यदि वस्तु घर में पड़ी है तो उसे ढूंढने के लिए बाहर भटकना ठीक वैसी ही अज्ञानता है, जैसे कस्तूरी का वास और सुगंध तो मृग की नाभि में होती है पर अज्ञानवश सुगन्धि को बाहर से आता हुआ महसूस कर हिरण भ्रमित हो जाता है और उसे वन में इधर उधर भटककर खोजता फिरता है. कस्तूरी जब जंगल में बाहर कहीं नहीं मिलती है तो मृग उदास हो जाता है और उसे कस्तूरी के होने पर ही संदेह होने लगता है. ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है. परमात्मा मनुष्य के भीतर है और वो उसे बाहर ढूंढ रहा है. परमात्मा को आज भी मनुष्य मंदिर-मस्जिद में ढूंढ रहा है और मंदिर-मस्जिद के लिए आपस में लड़झगड़ भी रहा है. संतों की दृष्टि में यह बेहद हास्यास्पद स्थिति है. कबीर साहब ने एक दोहे में कहा है-

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना॥ 
हिन्दू अपने को राम का भक्त कहते हैं और मुसलामानों को रहमान प्यारा है. राम और रहमान के नाम पर दोनों आपस में लड़कर मौत के मुंह में जा पहुँचते हैं. राम और रहमान के नाम पर वो दंगेफसाद और कई तरह के हिंसक अपराध करते हैं, लेकिन एक छोटी सी बात नहीं समझ पाते हैं कि राम और रहमान दोनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं. चाहे उसे राम कहो या रहमान, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है.

जल-बिच कमल कमल बिच कलियाँ तां पर भँवर निवासी।
सो मन बस त्रैलोक्य भयो हैं, यति सती सन्यासी।
पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी॥
कमल जल के बीच रहता है और कमल के फूल में कलियाँ रहती हैं, जिस पर भौरा मंडराता रहता है. ठीक वैसे ही संसार रूपी कमल जल रूपी परमात्मा के बीच ही रहकर ही खिला हुआ है और मन रूपी भंवरा उसपर मंडरा रहा है. मन शक्तिशाली है और माया का प्रतिरूप है. समस्त त्रिलोक मन और माया के वशीभूत हैं. साधना करने वाले यति, सती और सन्यासी सब मन को ही नियंत्रित करने की कोशिश में लगे रहते हैं, लेकिन मन संसार रूपी माया की ओर भागने से मन नियंत्रित नहीं होगा. मन तो केवल भगवान् की भक्ति से ही नियंत्रित होगा.

है हाजिर तेहि दूर बतावें, दूर की बात निरासी।
सो तेरे घट मांहि बिराजे, सहज मिले अबिनासी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भरम न जासी।
परमात्मा का निवास मनुष्य के ह्रदय में है, जो हमारे एकदम समीप है उसे अज्ञानी धर्मगुरु दूर के लोक का निवासी बताते हैं. ऐसे धर्मगुरुओं की बात सुनने वाला व्यक्ति भगवान् को दूर लोक का वासी जान निराश हो जाता है और उसकी खोज ही बंद कर देता है. जबकि सत्य तो यह है कि जन्मजन्मांतर से जिस परमात्मा की हम तलाश कर रहे हैं वो हमारी देह के भीतर ही है. परमात्मा हमारी देह के भीतर है, यह विश्वास करके और संतों की संगति करके सहजता से उसका अनुभव किया जा सकता है. कबीर साहब फरमाते हैं कि जब तक जीवन में किसी ब्रह्मज्ञानी व ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु से भेंट नहीं होगी, तब तक मन के भीतर स्थित भ्रम और संदेह भी नहीं मिटेंगे, इसलिए जीव को किसी सतगुरु की खोज करनी चाहिए. गीता में भी कहा गया है-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ ४.३४॥
अर्थात आत्मा-परमात्मा से संबंधित तत्त्व-ज्ञान को तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर समझना चाहिए. उनको भलीभांति साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करना चाहिए, उनकी यथासामर्थ्य सेवा करनी चाहिए और तत्पश्चात निच्छल मन से सरलता-पूर्वक प्रश्न करना चाहिए. वे ज्ञानी, अनुभवी, और तत्त्वदर्शी महापुरुष उस तत्त्व-ज्ञान का उपदेश देंगे। जिस तत्वज्ञान का वे उपदेश देंगे और अनुभव कराएंगे, उससे यह ज्ञात हो जाएगा कि ये शरीर मेरा है, किन्तु मैं शरीर नहीं हूँ. मैं प्राण, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि भी नहीं हूँ, मैं चैतन्य आत्मा हूँ और परमात्मा का अंश हूँ. वह ईश्वर तत्व मुझ में है और वही ईश्वर तत्व सब मनुष्यों के भीतर भी है. अतः आत्मा-परमात्मा को देह के भीतर ही ढूंढना चाहिए.

हमारे अधिकांशतः धार्मिक स्थल आज मनुष्य को न तो सांसारिक सन्मार्ग दिखा रहे हैं और न ही आध्यात्मिक दृष्टि से तृप्त कर रहे हैं, बल्कि धर्म के नाम पर लोंगो को सिर्फ भड़काने, अनुयायी बनाकर लूटने, आपस में लड़ाने-भिड़ाने और ईश्वर-पथ से भटकाने का ही कार्य कर रहे हैं. जब तक मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं होगा, तब तक वो तीर्थों और कमर्काण्ड़ों के भंवरजाल में फंसकर छटपटाता रहेगा, धर्मगुरु शिष्य बनाकर उसे जीवन भर मूर्ख बनाते रहेंगे, अपनी तुच्छ स्वार्थ सिद्धि करते रहेंगे और उसकी जन्मजन्मांतर की आध्यात्मिक प्यास भी कभी नहीं बुझेगी. कबीर साहब कहते हैं कि किसी सद्गुरु की मदद से जिस दिन किसी व्यक्ति का परिचय अपने स्वरूप की सहजता से हो जाता है, उसे सहज स्वरूप परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं. वस्तुतः यही गुरुपूर्णिमा का मूल सन्देश है और गुरु पूर्णिमा पर पढ़े जाने वाले मन्त्र ‘गुरु परंपरा सिद्धयर्थ व्यास पूजाम करिष्ये’ अर्थात ‘गुरु पम्परा से प्राप्त ज्ञान की सिद्धि के लिए व्यास पूजा कर रहे हैं’ का वास्तविक अर्थ भी यही है.
[29/04, 10:15] Sm: कबीरदास के  इस पद में पहली पंक्ति उलटवासी पद्धति की है ,यद्यपि 

शेष पंक्तियों में अध्यात्म कथन का सीधा प्रवाह है। वस्तुत :पानी ब्रह्म 

सरोवर का प्रतीक है और मछली जीवात्मा का प्रतीक है। ब्रह्म का अंश 

होते हुए भी जीव मायाधीन होकर अपने स्वरूप को भुला बैठता है। आत्म 

विस्मृति में जीता हुआ जीव अनेक प्रकार  सांसारिक उत्थान पतन से 

गुज़रता  हुआ कष्टों और भ्रमों में जीवन बिता देता है। हालांकि वह ब्रह्म 

का अंश है पर ब्रह्म पाने के लिए वह सहज भक्ति मार्ग से  चलने से दूर 

चला जाता है। भाव का स्वरूप होते हुए भी अभाव में जीता है। कबीरदास 

कहते हैं अपने स्वरूप को विस्मृत करने के कारण जीव अपनी ब्रह्मरूपता 

को पहचान नहीं पाता। ये ठीक वैसे है जैसे सरोवर के बीच में रहती हुई 

मछली को यह महसूस हो कि वह प्यासी है ,ऐसी आत्मविस्मृति पर 

कबीरदास उलटवासी के माध्यम से कहते हैं कि जीव की स्थिति पर मुझे 

हँसी  आती है।अपने स्वरूप को जाने बिना बाहर का कर्मकांड आत्म ज्ञान 

प्रदान नहीं करता चाहे वह मथुरा हो या फिर काशी या इसी प्रकार के और 

धार्मिक स्थल क्यों न हों वे मनुष्य को ब्रह्म प्राप्ति का कोई मार्ग नहीं 

सुझाते  . ब्रह्म प्राप्ति के लिए अपने ब्रह्म स्वरूप से परिचित होना पड़ता 

है। बाहर 

भटकने का कोई लाभ नहीं है। यदि वस्तु घर में पड़ी है और उपलब्ध 

अवस्था से अपरिचित होकर हम उसे बाहर खोजने जाते हैं तो लोक- 

उपहास का पात्र बनते हैं पर माया की प्रबलता को भी उपेक्षित नहीं किया 

जा सकता जैसे कस्तूरी का वास तो मृग की नाभि में होता है पर 

अज्ञानवश सुगन्धि से भ्रमित हुआ हिरण उसे वन वन में खोजता फिरता 

है। यही जीव की स्थिति है। वह परमात्मा को पाने के लिए कर्मकांड और 

प्रदर्शन वृत्ति में रमा रहता है ,जिस दिन अपने स्वरूप की सहजता से 

उसका परिचय हो जायेगा  वह सहज स्वरूप परमात्मा  उसे 

प्राप्त हो जायेंगे। भाव यह कि इस पद में परमात्मा की सर्वव्यापकता 

माया की प्रबलता और सहज अवस्था के महत्व को प्रतिपादित करते हुए 

कबीर दास जी यह कहना चाहते हैं कि सहज स्वरूप परमात्मा को सहज 

होकर ही प्राप्त किया जा  सकता है।

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