बाहर टिकट फुल :अंदर खाली स्टेडियम

राष्ट्रमंडल खेलों का सफल हो जाना भारत के लिये एक उपलब्धि है|मैं कमेंट्री बाक्स से खाली खाली स्टेडियम देखतरहती|आलोचक यह कहते नहीं थकते थे कि दिल्ली एक स्पोर्टिंग सिटी नहीं है|लेकिन सच यह नहीं था|
दिल्लीवासी तमाम असुविधाओं के होते हुए भी खेल के उत्साह में रँगने के लिये बेताब थे|लेकिन विचित्र स्थिति तब होती है जब वे टिकट खरीदने जाते हैं तो ऑल सोल्ड का नोटिस लगा होता है,लेकिन स्टेडियम में दर्शक दीर्घा पूरी खाली होती थी|

प्रश्न यह है कि टिकटें गयी कहाँ?तब मन यह करता कि कमेंटेटर बाक्स से निकल कर दर्शकों की कमी पूरी करने की कोशिश करूँ|खालसा कॉलेज की हूँ न!अपने को सवा लाख से तो कम समझती ही नहीं हूँ|लेकिन में तो स्विमिंग कांप्लेक्स में थी.पूरा का पूरा वी.आई.पी. ब्लाक खाली था|जो भी दर्शक नजर आ रहे थे वे या तो पुलिस कर्मी थे या खिलाड़ी या उनके परिवार जन|हाँ मीडिया बहुत तादाद में था|अगर उन खाली कुर्सियों पर हमारे स्कूल या काँलेज के बच्चे बिठा दिये जाते तो उन्हीं बच्चों में से कोई गगन नारंग,प्रशांत करमाकर,सायना नेहवाल बनने की प्रेरणा ले जाता|और सुरक्षा की दृष्टि से भी ये सेफ थे|
जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम 60000 की क्षमता वाला स्टेडियम है|अब यदि वहाँ 500 भी न नजर आए तो यह प्रश्न सहज ही उठेगा कि कौन है जो टिकटों की कालाबाजारी कर रहा है|बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों से गुहार लगाते नजर आए कि यार.. जरा ताली बजाओ,तभी तो हमें जोश आएगा और हमारा परफारमेंस बेहतर होगा|वही गिने चुने दर्शक बेचारे ताली पीट-पीट कर अपने हाथ लाल करते रहे|उस पर भी जुलम यह हो गया कि आयोजक आ जाते कि जनाब आपकी टिकट का टाइम खत्म हो गया, बाहर निकलो और बेचारे एथलीट उन गिने चुने दर्शकों को बड़ी पीड़ा से बाहर जाते देखते|

होम ग्राउंड का फायदा न तो खिलाड़ियों को मिला न ही दर्शकों को बहुत जरूरी है कि इसकी कायदे से तफ्तीश की जाए ताकि खेल के अपराधियों को पकड़ा जा सके|

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