समाजभाषाविज्ञान /भाषा का समाजशास्त्र। (बीए हिंदी 4 सेमेस्टर)

समाजभाषाविज्ञान (Sociolinguistics) के अन्तर्गत समाज का भाषा पर एवं भाषा के समाज पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। यह भाषावैज्ञानिक अध्ययन का वह क्षेत्र है जो भाषा और समाज के बीच पाये जानेवाले हर प्रकार के सम्बंधों का अध्ययन विश्लेषण करता है।

अर्थात समाजभाषाविज्ञान वह है जो भाषा की संरचना और प्रयोग के उन सभी पक्षों एवं संदर्भों का अध्ययन करता है जिनका सम्बंध सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रकार्य के साथ होता है अत: इसके अध्ययन क्षेत्र के भीतर विभिन्न सामाजिक वर्गों की भाषिक अस्मिता, भाषा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण एवं अभिवृत्ति, भाषा की सामाजिक शैलियाँ, बहुभाषिकता का सामाजिक आधार, भाषा नियोजन आदि भाषा-अध्ययन के वे सभी संदर्भ आ जाते है, जिनका संबंध सामाजिक संस्थान से रहता है।

इतिहास-
समाजभाषाविज्ञान में सामाजिक प्रतीक, संप्रेषण, शाब्दिक घटना, संपूर्णभाषा, वार्तालाप तथा भूमिका आधारित होती है। समाजभाषाविज्ञान की धरणा को आगे बढ़ाने वालों में 'लेबाव' का नाम सबसे प्रमुख है। यह वर्ग मानता है कि भाषा और समाज के संबंधो को भाषाविज्ञान के अपने संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता। भाषा स्वंय में एक सामाजिक वस्तु है, अत: उसकी मूल प्रकृति में ही सामाजिक तत्व अंतर्भूत होते हैं। ये ही तत्व भाषा को विषमरूपी और विकल्पनयुक्त बनाते हैं। भाषा-व्यवहार में प्राप्त इन विकल्पनों का अध्ययन भाषा की वास्तविक प्रकृति का उद्धाटन करता है। लेबाव का यह कथन है कि समाजभाषाविज्ञान ऐसी कोई अलग विधा नहीं मानी जा सकती, क्योंकि समाजभाषाविज्ञान ही तो वास्तविक भाषाविज्ञान है।

परिचय-
आज जिस सामाजभाषाविज्ञान की चर्चा की जाती है, वह समाजशास्त्र और भाषाविज्ञान के मात्र अवमिश्रण का न तो परिणाम है और न ही वह सामाजिक-व्यवस्था और भाषिक व्यवस्था की कोई सह-संकल्पना है वह यह मानकर चलता है कि भाषा, समाज सापेक्ष प्रतीक व्यवस्था है और इस प्रतीक-व्यवस्था के मूल में ही सामाजिक तत्व निहित रहते है हम किसी एक व्यक्ति के लिए कहते हैं-

आप इधर आइए।

तो दूसरे व्यक्ति से बोलते है -

तू इधर आ।

जब हम प्रतिष्ठा प्राप्त डॉक्टर या प्रोफेसर से कहते है-

कृपया बताइए कि....

जबकि किसी धोबी या मोची से बात करते हुए बोलते हैं -

तू यह बता कि...

इसी प्रकार अपने माता-पिता या दादा नाना से बहुवचन का प्रयोग करते हुए बोलते हैं-

आप यहाँ बैठें।

जबकि छोटे बेटे-बेटी या नाती-पोतों से बातचीत करते समय एकवचन का प्रयोग करते हुए कहते हैं-

तू यहाँ बैठ, या फिर तुम यहाँ बैठो।

तू, तुम, या आप में किसी एक के प्रयोग अथवा एकवचन या बहुवचन में एक के स्थान पर दूसरे के चयन के पीछे का निर्धारक तत्व भाषा-प्रयोग का सामाजिक बोध ही होता है। सामाजभाषाविज्ञान की यह मान्यता है कि भाषा को इस सामाजिक बोध अथवा उसके सामाजिक प्रयोजन से अलग कर देखना असंगत है। अत: वह भाषा को शुध्द भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था नहीं मानता, जैसा कि सैध्दांतिक भाषावैज्ञानिकों का एक वर्ग स्वीकार करता है। वह एक वर्ग स्वीकार करता है। वह तो भाषा को सामाजिक प्रतीकों की एक उपव्यवस्था के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते है कि समाजभाषा में समाज द्वारा जहां निर्वाध गति से बोलता है वह कभी भाषा का ध्यान न देकर वह सम्प्रेषण पर विशेष ध्यान देते हुए मुख सुख का सुविधा देना चाहता है। उसको भाषा विज्ञान में समाजभाषाविज्ञान कहते है।

Comments

Unknown said…
Thank you mam 😊
Unknown said…
Thnk u mam😊
Ananya