Thursday, May 7, 2015

संचार क्या है

संचार क्या है

सार्थक चिन्हों द्वारा सूचनाओं को आदान -प्रदान करने की प्रक्रिया संचार है। किसी सूचना या जानकारी को दूसरों तक पहुंचाना संचार है। जब मनुष्य अपने हाव-भाव, संकेतों और वाणी के माध्यम से सूचनाओं का आदान प्रदान आपस में करता है तो वह संचार है। कम्यूनिकेशन अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ``Communis´´ नामक शब्द से हुई है। इसका अर्थ समुदाय होता है। अर्थात भाईचारा, मैत्री, भाव, सहभागिता, आदि इसके अर्थ हो सकते है। इसलिए संचार का अर्थ एक-दूसरे को जानना, समझना, संबध बनाना, सूचनाओं का आदान प्रदान करना आदि है। इसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों, भावों, अनुभवों को एक दूसरे से बांटता है। वास्तव में विचारों की अभिव्यक्ति जिज्ञासाओं को परस्पर बांटना ही संचार का मुख्य उद्देश्य है।

संचार मनुष्यों के अलावा पशु पक्षियों में भी होता इसके लिए माध्यम का होना अति आवश्यक है। चिड़िया का चहचहाना, कुत्ते का भोंकना, सर्प का भुंकार मारना, शेर का दहाड़ना, गाय का रंभाना, मेंढ़क का टर-टर करना भी संचार है। भाषा ही संचार का पहला माध्यम है। भाषा के द्वारा ही हम अपने विचारों को समाज में आदान प्रदान करते है। इसीलिए कहा जा सकता है कि सूचनाओं, विचारों एवं भावनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक भाषा के माध्यम से ही अपने विचारों अनुभवों को समाज के सामने रख कर यथेष्ठ सूचना का प्रेषण करते है।

संचार मौखिक भी होता है और लिखित भी होता है। संचार का तीसरा चरण मुद्रण से संबध रखता है। और चौथे चरण को जनसंचार कहते है। वास्तव मे संचार एक प्रक्रिया है संदेश नहीं। इस प्रक्रिया में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से बातचीत करता है। अपने अनुभवों को बांटता है। संचार ने ही पूरी दुनिया को एक छोटे से गांव में तब्दील कर दिया है। अमेरिकी विद्वान पसिंग ने मानव संचार के छह घटक बताऐं है। 
संचार के तत्व

प्रेषक : संदेश भेजने वाला 

संदेश : विचार, अनुभव, सूचना

संकेतीकरण या इकोडिंग : विचार को संकेत चिन्ह में बदलना 

माध्यम : जिसके द्वारा संदेश भेजा जाता है

प्राप्तकर्ता : संदेश प्राप्त करने वाला

संकेतवाचन या डीकोडिंग : प्राप्तकर्ता संदेश को अपने मस्तिष्क में उसी अर्थ में ढ़ाल लेना
देश तथा विदेश में मनुष्य की दस्तकें बढ़ती है। इसलिए संचार-प्रक्रिया का पहला चरण प्रेषक होता है। इसको इनकोडिंग भी कहते है। एनकोडिंग के बाद विचार शब्दों, प्रतीकों, संकेतों एवं चिन्हों में बदल जाते है। इस प्रक्रिया के बाद विचार सार्थक संदेश के रूप में ढल जाता है। जब प्राप्तकर्ता अपने मस्तिष्क में उक्त संदेश को ढ़ाल लेता है तो संचार की भाषा में इसे डीकोडिंग कहते है। डीकोडिंग के बाद प्राप्तकर्ता अपनी प्रतिक्रिया भेजता है इस स्थिति को फीडबेक या प्रतिपुष्टि कहते है।

संचार की विशेषताऐं
संदेश का संप्रेषण एवं विश्लेषण करना।
संचार उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए।
प्रभावी होने के साथ-साथ सार्थक भी होना चाहिए। दो व्यक्तियों में सार्थकता का निर्माण संप्रेषण से होता है।
संप्रेषक को पहले सूचना एवं तथ्य को हृदयंगम कर लेना चाहिए।


किसी संदेश के लिए पांच प्रश्नों का उत्तर पूछना अतिआवश्यक है:-

1. कौन कहता है?
2. क्या कहता है?
3. किस माध्यम से कहता है? 
4. किससे कहता है?
5. किस प्रभाव के साथ कहता है।

विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई संचार की परिभाषा
संचार एक शक्ति है जिसमें एक एकाको संप्रेषण दूसरे व्यक्तियो को व्यवहार बदलने हेतु प्रेरित करता है।
-हावलैंड
वाणी, लेखन या संकेतों के द्वारा विचारों अभिमतों अथवा सूचना का विनिमय करना संचार कहलाता है।
-रॉबर्ट एंडरसन
संचार एक पक्रिया है जिसमें सामाजिक व्यवस्था के द्वारा सूचना, निर्णय और निर्देश दिए जाते है और यह एक मार्ग है जिसमें ज्ञान, विचारों और दृष्टिकोणों को निर्मित अथवा परिवर्तित किया जाता है।
-लूमिक और बीगल
संचार समानूभूति की प्रक्रिया या श्रृंखला है जो कि एक संस्था के सदस्यों को उपर से नीचे तक और नीचे से उपर तक जोड़ती है।
-मैगीनसन

संचार के प्रकार (Types of Communication)


       संचार मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक है, जिसके न होने की स्थिति में मानव अधूरा होता है। अपने समाज में मानव कहीं संचारक के रूप में संदेश सम्प्रेषित करता है, तो कहीं प्रापक के रूप में संदेश ग्रहण करता है। संचार प्रक्रिया में संचारक शब्दिक संकेतों के रूप में उद्दीपकों को सम्प्रेषित कर प्रापक के व्यवहार को बदलने का प्रयास करता है। संचार केवल शाब्दिक नहीं होता है, बल्कि इसमें उन सभी क्रियाएं भी सम्मलित किया गया है, जिनसे प्रापक प्रभावित होता है। संचार प्रक्रिया में संदेश का प्रवाह संचारक से प्रापक तक होता है। इस प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार के प्रकारों का वर्गीकरण किया जाता है, क्योंकि मानव एक-दो लोगों से एक किस्म का तथा किसी समूह/समूदाय के साथ अन्य किस्म का व्यवहार करता है। संचार प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार मुख्यत: चार प्रकार का होता है :- 
1. अंत: वैयक्तिक संचार,
2. अंतर वैयक्तिक संचार,
3. समूह संचार, और
4. जनसंचार।

1. अंत: वैयक्तिक संचार
(Intrapersonal Communication)

        यह एक मनोवैज्ञानिक क्रिया तथा मानव का व्यक्तिगत चिंतन-मनन है। इसमें संचारक और प्रापक दोनों की भूमिका एक ही व्यक्ति को निभानी पड़ती है। अंत: वैयक्तिक संचार मानव की भावना, स्मरण, चिंतन या उलझन के रूप में हो सकती है। कुछ विद्वान स्वप्न को भी अंत: वैयक्तिक संचार मानते हैं। इसके अंतर्गत् मानव अपनी केंद्रीय स्नायु-तंत्र (Central Nervous Systemतथा बाह्य स्नायु-तंत्र (Perpheral Nervous System) का प्रयोग करता है। केंद्रीय स्नायु-तंत्र में मस्तिष्क आता है, जबकि बाह्य स्नायु-तंत्र में शरीर के अन्य अंग। इस पर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में पर्याप्त अध्ययन हुए हंै। जिस व्यक्ति का अंत: वैयक्तिक संचार केंद्रित नहीं होता है, उसे समाज में च्पागलज् कहा जाता है। मनुष्य के मस्तिष्क का उसके अन्य अंगों से सीधा सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क अन्य अंगों से न केवल संदेश ग्रहण करता है, बल्कि संदेश सम्प्रेषित भी करता है। जैसे, पांव में चोट लगने का संदेश मस्तिष्क ग्रहण करता है और मरहम लगाने का संदेश हाथ को सम्प्रेषित करता है। 
यह एक स्व-चालित संचार प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव अपना तथा अन्य दूसरों का मूल्यांकन करता है। सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की जितनी भी प्रणालियां हैं, उन सभी का आधार अंत: वैयक्तिक संचार ही है। इसे आभ्यांतर, स्वगत या अंतरा वैयक्तिक संचार भी कहा जाता है। यह समस्त संचारों का आधार है। इसकी प्रक्रिया व्यापक होने के साथ-साथ बड़ी रहस्यवादी होती हैं। भारतीय मनीषियों ने अंत: वैयक्तिक संचार प्रक्रिया को सुधारने तथा विकास की राह पर ले जाने का लगातार प्रयास किया है, परिणामस्वरूप योग व साधना की उत्पत्ति व विकास हुआ। समाज में अंत: वैयक्तिक संचार के कई उदाहरण मौजूद हैं-
(1) शारीरिक रूप में मजबूत व्यक्ति अपनी भौतिक शक्ति के कारण सदैव दूसरों पर प्रभुत्व जमाने के लिए स्वयं से संचार करता है। 
(2) निर्धन व्यक्ति सदैव अपनी भूख मिटाने के लिए स्वयं से संचार करता है।  
(3) विद्यार्थी सदैव अच्छे अंक पाने के लिए स्वयं से संचार करता है।
(4) बेरोजगार व्यक्ति नौकरी पाने के लिए संचार करता है... इत्यादि।
इसी क्रम में मैथिली शरण गुप्त की रचना काफी प्रासंगिक हैै :- 
कोई पास न रहने पर भी जनमन मौन नहीं रहता।
आप-आप से ही कहता है, आप-आप की ही सुनता है।। 
अंत: वैयक्तिक संचार एक शरीरतांत्रिक क्रिया है, जिसके चलते मानव में मूल्य, अभिवृत्ति, विश्वास, अपनापन इत्यादि का जन्म होता है। व्यावहारिक प्रक्रिया के आधार पर इसको भौतिक-अभौतिक अथवा अंत:-वाह्य रूपों में विभाजित किया जा सकता है। 

विशेषताएं : अंत: वैयक्तिक संचार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-  
1. इससे मानव स्वयं को संचालित करता है तथा अपने जीवन की योजनाओं को तैयार करता है।
2. मानव सुख-द:ुख का एहसास करता है। 
3. अपने जीवन के लिए उपयोगी तथा आवश्यक आयामों का आविष्कार करता है, 
4. दिल और दिमाग पर नियंत्रण रखता है, और
5. फीडबैक व्यक्त करता है। 
2. अंतर वैयक्तिक संचार
(Interpersonal Communication)
      अंतर वैयक्तिक संचार से तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से है। यह आमने-सामने होता है। इसके लिए दो व्यक्तियों के बीच सम्पर्क का होना जरूरी है। अत: अंतर वैयक्तिक संचार दो-तरफा (Two-way प्रक्रिया है। यह कहीं भी स्वर, संकेत, शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र, नाटक इत्यादि के रूप में हो सकता है। इसमें फीडबैक तुुरंत और सबसे बेहतर मिलता है। संचारक जैसे ही किसी विषय पर अपनी बात कहना शुरू करता है, वैसे ही फीडबैक मिलने लगता है। अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण मासूम बच्चा है, जो बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर निकलता है, वैसे-वैसे समाज के सम्पर्क में आता है और अंतर वैयक्तिक संचार को अपनाने लगता है। माता-पिता के बुलाने पर उसका हंसना, बोलना या भागना अंतर वैयक्तिक संचार का प्रारंभिक उदाहरण है। इसके बाद वह ज्यों-ज्यों किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों भाषा, परम्परा, अभिवादन आदि अंतर वैयक्तिक संचार प्रक्रिया से सीखने लगता है। पास-पड़ोस के लोगों से जुडऩे में भी अंतर वैयक्तिक संचार की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं।
       अंतर वैयक्तिक संचार में फीडबैक का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी के आधार पर संचार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साक्षात्कार, कार्यालयी वार्तालॉप, समाचार संकलन इत्यादि अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। अंतर वैयक्तिक संचार सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। इसके लिए मात्र दो लोगों का मौजूद होना जरूरी नहीं है, बल्कि दोनों के बीच परस्पर अंत:क्रिया का होना भी जरूरी है। वह चाहे जिस रूप में हो। टेलीफोन पर वार्तालॉप, ई-मेल या सोशल नेटवर्किग साइट्स पर चैटिंग अंतर वैयक्तिक संचार के अंतर्गत् आते हैं। सामान्यत: दो व्यक्तियों के बीच वार्तालॉप को ही अंतर वैयक्तिक संचार की श्रेणी में रखा जाता है, परंतु कुछ संचार वैज्ञानिक तीन से पांच व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालॉप को भी इसी श्रेणी में मानते हैं, बशर्ते संख्या के कारण अंतर वैयक्तिक संचार के मौलिक गुण प्रभावित न हो। संचार वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वैसे-वैसे अंतर वैयक्तिकता का गुण कम होगा और समूह का निर्माण होगा।
विशेषताएं : अंतर वैयक्तिक संचार बेहद आंतरिक संचार है, जिसके कारण  
(1)  फीडबैक तुरंत तथा बेहतर मिलता है।
(2)  बाधा आने की संभावना कम रहती है।
(3)  संचारक और प्रापक के मध्य सीधा सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित होता है।
(4)  संचारक के पास प्रापक को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त अवसर होता है।
(5)  संचारक और प्रापक शारीरिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब होते हैं।
(6)  किसी बात पर असहमति की स्थिति में प्रापक को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है।
(7)  प्रापक के बारे में संचारक पहले से बहुत कुछ जानता है।
(8)  संदेश भेजने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे- भाषा, शब्द, चेहरे की प्रतिक्रिया, भावभंगिमा, हाथ पटकना, आगे-पीछे हटना, सिर झटकना इत्यादि।
3. समूह संचार
(Group Communication)
       यह अंतर वैयक्तिक संचार का विस्तार है, जिसमें सम्बन्धों की जटिलता होती है। समूह संचार की प्रक्रिया को समझने के लिए समूह के बारे में जानना आवश्यक है। समूह संचार को जानने के लिए समूह से परिचित होना अनिवार्य है। मानव अपने जीवन काल में किसी-न-किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए नये समूहों का निर्माण भी करता है। समूहों से पृथक होकर मानव अलग-थलग पड़ जाता है। समूह में जहां व्यक्तित्व का विकास होता है, वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा बनती है। समूह के माध्यम से एक पीढ़ी के विचार दूसरे पीढ़ी तक स्थानांतरित होता है। समूह को समाज शास्त्रियों और संचार शास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-  

  • मैकाइवर एवं पेज के अनुसार- समूह से तात्पर्य व्यक्तियों के किसी ऐसे संग्रह से है जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
  • ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार- जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक समूह का निर्माण करते हैं।
      अत: जब कुछ लोग एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से पारस्परिक सम्पर्क बनाते हैं तथा एक दूसरे के अस्तित्व को पहचानते हैं तो उसे एक समूह कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित समूह की सबसे प्रमुख विशेषता यह होती है कि सभी लोग स्वयं को समूह का सदस्य मानते हैं। समाजशास्त्री चाल्र्स एच. कूले के अनुसार- समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं। पहला, प्राथमिक समूह (Primary Group)-  जिसके सदस्यों के बीच आत्मीयता, निकटता एवं टिकाऊ सम्बन्ध होते हैं। परिवार, मित्र मंडली व सामाजिक संस्था आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। दूसरा, द्वितीयक समूह (Secondary Group)- जिसका निर्माण संयोग व परिस्थितिवश या स्थान विशेष के कारण कुछ समय के लिए होता है। ट्रेन व बस के यात्री, क्रिकेट मैच के दर्शक, जो आपस में विचार-विमर्श करते हंै, द्वितीयक समूह के सदस्य कहलाते हैं।
       सामाजिक कार्य व्यवहार के अनुसार समूह को हित समूह और दबाव समूह में बांटा गया है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो उसे हित समूह कहा जाता है। इसके विपरीत जब अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य समूहों या प्रशासन के ऊपर दबाव डालता है, तब वह स्वत: ही दबाव समूह में परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति समूह बनाकर विचार-विमर्श, संगोष्ठी, भाषण, सभा के माध्यम से विचारों, जानकारियों व अनुभवाओं का आदान-प्रदान करता है, तो उसे समूह संचार कहा जाता है। इसमें फीडबैक तुरंत मिलता है, लेकिन अंतर वैयक्तिक संचार की तरह नहीं। फिर भी, यह बहुत ही प्रभावी संचार है, क्योंकि इसमें व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है। समूह के सदस्यों को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। समूह संचार कई सामाजिक परिवेशों में पाया जाता है। जैसे- कक्षा, रंगमंच, कमेटी हॉल, बैठक इत्यादि। कई संचार विशेषज्ञों ने समूह संचार में सदस्यों की संख्या २० तक मानते हंै, जबकि कई संख्यात्मक की बजाय गुणात्मक विभाजन पर जोर देते हैं। लिण्डग्रेन (१९६९) के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर एक समूह का निर्माण होता है।
     
         समूह संचार और अंतर वैयक्तिक संचार के कई गुण आपस में मिलते हैं। समूह संचार कितना बेहतर होगा, फीडबैक कितना अधिक मिलेगा, यह समूह के प्रधान और उसके सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों पर निर्भर करता है। समूह का प्रधान संचार कौशल में जितना अधिक निपुण तथा ज्ञानवान होगा। उसके समूह के सदस्यों के बीच आपसी सम्बन्ध व सामन्जस्य जितना अधिक होगा, संचार भी उतना ही अधिक बेहतर होगा। छोटे समूहों में अंतर वैयक्तिक संचार के गुण ज्यादा मिलने की संभावना होती है। बड़े समह की अपेक्षा छोटे समूह में संचार अधिक प्रभावशाली होता है, क्योंकि छोटे समूह के अधिकांश सदस्य एक-दूसरे से पूर्व परिचित होते हैं। सभी आपस में बगैर किसी मध्यस्थ के विचार-विमर्श करते हैं। सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका भी अधिक मिलता है। समूह के सदस्यों के हित और उद्देश्य में काफी समानता होती है तथा सभी संदेश ग्रहण करने के लिए एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। प्रापक पर संदेश का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है, जिसे फीडबैक के रूप में संचारक ग्रहण करता है। 

विशेषताएं : समूह संचार में :- 
१. प्रापकों की संख्या निश्चित होती है, सभी अपनी इच्छा व सामर्थ के अनुसार सहयोग करते हैं,
२. सदस्यों के बीच समान रूप से विचारों, भावनाओं का आदान-प्रदान होता है,
३. संचारक और प्रापक के बीच निकटता होती है,
४. विचार-विमर्श के माध्यम से समस्याओं का समाधान किया जाता है,  
५. संचारक का उद्देश्य सदस्यों के बीच चेतना विकसित कर दायित्व बोध कराना होता है, 
६. फीडबैक समय-समय पर सदस्यों से प्राप्त होता रहता है, और
७. समस्या के मूल उद्देश्यों के अनुरूप संदेश सम्प्रेषित किया जाता है।

4. जनसंचार
(Mass Communication)
       आधुनिक युग में जनसंचार  काफी प्रचलित शब्द है। इसका निर्माण दो शब्दों जन+संचार के योग से हुआ है। च्जनज् का अर्थ नता अर्थात् भीड़ होता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, जन का अर्थ पूर्ण रूप से व्यक्तिवादिता का अंत है। गिन्सवर्ग के अनुसार, जनता असंगठित और अनाकार व्यक्तियों का समूह है जिसके सदस्य सामान्य इच्छाओं एवं मतों के आधार पर एक दूसरे से बंधे रहते हैं, परंतु इसकी संख्या इतनी बड़ी होती है कि वे एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये नहीं रख सकते हैं। समूह संचार का वृहद रूप है- जनसंचार। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १९वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश सम्प्रेषण के लिए किया गया। संचार क्रांति के क्षेत्र में तरक्की के कारण जैसे-जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनसंचार के क्षेत्र का विस्तार होता गया। इसमें फीडबैक देर से तथा बेहद कमजोर मिला है। आमतौर पर जनसंचार और जनमाध्यम को एक ही समझा जाता है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। जनसंचार एक प्रक्रिया है, जबकि जनमाध्यम इसका साधन। जनसंचार माध्यमों के विकास के शुरूआती दौर में जनमाध्यम मनुष्य को सूचना अवश्य देते थे, परंतु उसमें जनता की सहभागिता नहीं होती थी। इस समस्या को संचार विशेषज्ञ जल्दी समझ गये और समाधान के लिए लगातार प्रयासरत रहे। इंटरनेट के आविष्कार के बाद लोगों की सूचना के प्रति भागीदारी बढ़ी है तथा मनचाहा सूचना प्राप्त करना और दूसरों को सम्प्रेषित करना संभव हो सका।   

       जनसंचार को अंग्रेजी भाषा में Mass Communication कहते हैं, जिसका अभिप्राय बिखरी हुई जनता तक संचार माध्यमों की मदद से सूचना को पहुंचाना है। समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि अत्याधुनिक संचार माध्यम हैं। जनसंचार का अर्थ विशाल जनसमूह के साथ संचार करने से है। दूसरे शब्दों में, जनसंचार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बहुल रूप में प्रस्तुत किए गए संदेशों को जन माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अंजान तथा विषम जातीय जनसमूह तक सम्प्रेषित किया जाता है। संचार विशेषज्ञों ने जनसंचार की निम्नलिखित परिभाषा दी है :-

  • लेक्सीकॉन यूनिवर्सल इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार- कोई भी संचार, जो लोगों के महत्वपूर्ण रूप से व्यापक समूह तक पहुंचता हो, जनसंचार है। 
  • बार्कर के अनुसार- जनसंचार श्रोताओं के लिए अपेक्षाकृत कम खर्च में पुनर्उत्पादन तथा वितरण के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल करके किसी संदेश को व्यापक लोगों तक, दूर-दूर तक फैले हुए श्रोताओं तक रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे किसी चैनल द्वारा पहुंचाया जाता है। 
  • कार्नर के अनुसार- जनसंचार संदेश के बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा वृहद स्तर पर विषमवर्गीय जनसमूहों में द्रुतगामी वितरण करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जिन उपकरणों अथवा तकनीक का उपयोग किया जाता है उन्हें जनसंचार माध्यम कहते हैं। 
  • कुप्पूस्वामी के अनुसार- जनसंचार तकनीकी आधार पर विशाल अथवा व्यापक रूप से लोगों तक सूचना के संग्रह एवं प्रेषण पर आधारित प्रक्रिया है। आधुनिक समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण, विश्लेषण, ज्ञान एवं मूल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है। 
  • जोसेफ डिविटों के अनुसार- जनसंचार बहुत से व्यक्तियों में एक मशीन के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है।
  • जॉर्ज ए.मिलर के अनुसार- जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।
  • डी.एस. मेहता के अनुसार- जनसंचार का अर्थ जनसंचार माध्यमों जैसे- रेडियो, टेलीविजन, प्रेस और चलचित्र द्वारा सूचना, विचार और मनोरंजन का प्रचार-प्रसार करना है। 
  • रिवर्स पिटरसन और जॉनसन के अनुसार-
          - जनसंचार एक-तरफा होता है।
          - इसमें संदेश का प्रसार अधिक होता है। 
          - सामाजिक परिवेश जनसंचार को प्रभावित करता है तथा जनसंचार का असर सामाजिक परिवेश पर
            पड़ता है।
          - इसमें दो-तरफा चयन की प्रक्रिया होती है।
          - जनसंचार जनता के अधिकांश हिस्सों तक पहुंचने के लिए उपर्युक्त समय का चयन करता है। 
          - जनसंचार जन अर्थात् लोगों तक संदेशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है।

  • डेनिस मैकवेल के अनुसार- 
        - जनसंचार के लिए औपचारिक तथा व्यस्थित संगठन जरूरी है, क्योंकि संदेश को किसी माध्यम द्वारा    
          विशाल जनसमूह तक पहुंचाना होता है।
        - जनसंचार विशाल, अपरिचित जनसमह के लिए किया जाता है।
        - जनसंचार माध्यम सार्वजनिक होते हैं। इसमें भाषा व वर्ग के लिए कोई भेद नहीं होता है। 
        - श्रोताओं की रचना विजातीय होती है तथा वे विभिन्न संस्कृति, वर्ग, भाषा से सम्बन्धित होते हैं।
        - जनसंचार द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में एक ही समय पर सम्पर्क संभव है।
        - इसमें संदेश का यांत्रिक रूप में बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है। 

           उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जनसंचार यंत्र संचालित है, जिसमें संदेश को तीब्र गति से भेजने की क्षमता होती है। जनसंचार माध्यमों में टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिका, फिल्म, वीडियो, सीडी, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि आते हैं, जो संदेश को प्रसारित एवं प्रकाशित करते हंै। जनमाध्यमों के संदर्भ में मार्शल मैक्लूहान ने लिखा है कि- च्माध्यम ही संदेश हैट्ट। माध्यम का अर्थ मध्यस्थता करने वाला या दो बिन्दुओं को जोडऩे से है। व्यावहारिक दृष्टि से संचार माध्यम एक ऐसा सेतु है जो संचारक और प्रापक के मध्य ट्यूब, वायर, प्रवाह इत्यादि से पहुंचता है।
विशेषताएं : जनसंचार की विशेषताएं काफी हद तक संदेश सम्प्रेषण के लिए प्रयोग किये गये माध्यम पर निर्भर करती हंै। जनसंचार माध्यमों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। प्रिंट माध्यम के संदेश को जहां संदर्भ के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है, भविष्य में पढ़ा जा सकता है, दूसरों को ज्यों का त्यों दिखाया व पढ़ाया जा सकता है, वहीं इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के संदेश को न तो सुरक्षित रखा जा सकता है, न तो भविष्य में ज्यों का त्यों देखा तथा दूसरों को दिखाया जा सकता है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक  माध्यम के संदेश को अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है, लेकिन प्रिंट माध्यम के संदेश को ग्रहण करने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की मदद से संदेश को एक साथ हजारों किलोमीटर दूर फैले प्रापकों के पास एक ही समय में पहुंचाया जा सकता है, किन्तु प्रिंट माध्यम से नहीं। वेब द्रुतगति का जनसंचार माध्यम है। इसकी तीव्र गति के कारण देश की सीमाएं टूट चुकी हैं। इसी आधार पर मार्शल मैकलुहान ने च्विश्वग्रामज् की कल्पना की। इंटरनेट आधारित वेब माध्यम की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रिंट माध्यम की तरह पढ़ा, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की तरह देखा व सुना जा सकता है। कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर Ctrl S (कीज) की मदद से भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जनसंचार की निम्नलिखित विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 
1. विशाल भू-भाग में रहने वाले प्रापकों से एक साथ सम्पर्क स्थापित होता है,
2. समस्त प्रापकों के लिए संदेश समान रूप से खुला होता है,
3. संचार माध्यम की मदद से संदेश का सम्प्रेषण किया जाता है,
4. सम्प्रेषण के लिए औपचारिक व व्यवस्थित संगठन होता है,
5. संदेश सम्प्रेषण के लिए सार्वजनिक संचार माध्यम का उपयोग किया जाता है, 
6. प्रापकों के विजातीय होने के बावजूद एक ही समय में सम्पर्क स्थापित करना संभव होता है,
7. संदेश का यांत्रिक रूप से बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है, तथा
8. फीडबैक संचारक के पास विलम्ब से या कई बार नहीं भी पहुंचता है।

फिल्म समीक्षा क्वीन- नारी चेतना की अंगड़ाई /वीरेंद्र जैन


अंगड़ाई, वह देह मुद्रा होती है जो कोई मनुष्य या प्राणी देर तक सोने या विश्राम के बाद शरीर को फिर से काम करने के लिए सक्रिय करने हेतु फैलाता और मरोड़ता है। दासों को यह अनुमति नहीं होती थी कि वे अपने स्वामियों के सोने के बाद जागें इसलिए उनके सामने उनके अंगड़ाई लेने को भी अनुशासनहीनता माना जाता था। यही हाल पत्नियों का भी था जो अपने थोपे गये अनुशासन में स्वयं को पति के चरणों की दासी मानने लगती थीं। किसी महिला का किसी पुरुष के सामने अंगड़ाई लेने को अश्लीलता या कामुक आचरण माना जाता था। हिन्दी की एक अश्लील कथा पत्रिका का नाम ही ‘अंगड़ाई’ था।
       पिछली सदी के पूर्वार्ध में रूस में हुयी समाजवादी क्रांति के बाद से नारियों को समान अधिकार मिलने शुरू हो गये थे। इंगलेंड जैसे देश ने हमें तो दो सौ साल गुलाम रखा ही पर अभी तक सर्वोच्च पद पर वंश परम्परा से मुक्त न हो सकने वाले इस देश ने अपने यहाँ की नारियों को भी वोटिंग का अधिकार 1925 में दिया, और फ्रांस में यह अधिकार 1944 में दिया गया। हमारे यहाँ आज़ादी के बाद संविधान के लागू होते ही महिलाओं को समान अधिकार मिल गया था पर स्विट्जरलेंड जैसे देश में यह अधिकार 1971 में मिला।
       परतंत्रता की कई ग्रंथियां होती हैं और स्वतंत्रता के लिए उन सब को खोलना होता है। कहाँ कौनसी ग्रंथि पहले खुलती है यह परिवेश पर निर्भर करता है। पिछले दिनों आयी फिल्म ‘क्वीन’ नारी वर्ग की ऐसी ही चेतना की पकती हांड़ी के एक दाने की कथा है।  1947 में देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान से आये शरणार्थियों द्वारा अपने व्यापारिक कौशल से सम्पन्न हुये पंजाबी परिवार की एक लड़की के बदलाव की कथा है। इस परिवार की एक लड़की रानी [कंग़ना रनौत]  की सगाई के बाद शादी से दो दिन पहले ही लड़का विजय [राज कुमार राव] शादी से इंकार कर देता है। शादी दोनों परिवारों की सहमति से हुयी थी और लड़की शादी से पहले लड़के से डेटिंग करती रही थी, और अपने हनीमून को पेरिस और एम्स्टर्डम में मनाने के ख्वाब सजा लिये थे। शादी की पूरी तैयारियों के बाद जब यह घटना घटती है तो नवधनाड्य परिवार के सम्मान को लगी ठेस के साथ मासूम लड़की को अपने हनीमून का ख्वाब टूटने का दुख ज्यादा रहता है। नई आर्थिक नीतियों के वैश्वीकरण ने हमारी संस्कृति का पश्चिमीकरण कर दिया है और हमारी युवा पीढी की भावनाओं में गहराई कम व सतहीकरण अधिक आ गया है। आहत लड़की अपने को कमरे में बन्द कर लेती है और आशंकाओं में डूबा परिवार अपना आहत आत्मसम्मान भूल कर उसे मनाने में जुट जाता है। बाहर परिवार को भले ही उसके चौबीस घंटे से भूखे रहने की चिंता है पर वह भूख लगने पर अन्दर रखे मिठाई के डिब्बों में से लड्डू खाती रहती है। पुरानी पीढी उसे मनाने के लिए उसकी हर माँग मानने को तैयार हो जाती है जिसमें उसके पूर्व से रिजर्व टिकिट और होटल में अकेले ही हनीमून पर जाने का प्रस्ताव है। कथा यहाँ से ही प्रारम्भ होती है जहाँ उस बेहद मासूम कबूतर सी लड़की जो सड़क पार करने में भी डरती रही थी व जिसे बाहर छोटे भाई के सात्ह ही भेजा जाता था. को एक नई दुनिया देखने को मिलती है।
       परम्परागत व्यापारी परिवार में पली लड़की को होटल में काम करने वाली एक लड़की विजयलक्ष्मी मिलती है जिसके माँ और बाप दोनों ही मिश्रित राष्ट्रीयता के थे और एक मिश्रण भारतीयता का भी था इसलिए वह टूटी फूटी हिन्दी भी जानती है। वह बिना ब्याही माँ है जो एक ओर तो बिना किसी हीन भावना के होटल में सफाई का काम करती है बच्चे की परवरिश करती है, और दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता को पूरी तरह जीते हुए शराब, डांस और फ्री सेक्स में डुबाये है। नायिका प्रधान इस फिल्म की कथा नायिका इस नई दुनिया को शुरू में भीगी बिल्ली की तरह असमंजस से देखती है और जब एक हादसे के बाद उसे इस अनजान देश में विजयलक्ष्मी [लिसा हिडेन] से सहारा मिलता है तो दुनिया को उसी की तरह साहस पूर्वक जीने की कोशिश करती है।  इस कोशिश में उसमें कई बदलाव आते हैं। उसे अपने अगले पड़ाव में एम्स्टर्डम जाना है जहाँ उसके पास होटल का कोई आरक्षण नहीं है। वह विजयलक्ष्मी से जिस हास्टल का पता लायी थी उसमें चार बेड वाले रूम में एक बेड ही उपलब्ध है और शेष तीन बेड पर लड़के हैं। वह उस हास्टल में न रुकने की सोचती है पर दूसरी जगह पाने में सफल नहीं होती और मजबूरी में लौट आती है। तीन लड़कों के साथ वाले कमरे में रहने से आतंकित वह सोने के लिए कमरे से बाहर बेंच पर सोने चली जाती है तो तीनों खुद बाहर सोकर उसे अन्दर सोने के लिए दे देते हैं। उनके इस मानवीय व्यवहार से वह अभिभूत हो जाती है और उनकी मित्र बन जाती है। उसके इन नये मित्रों में से एक फ्रेंच है तो दूसरा जापानी व तीसरा रशियन। सबकी अपनी अलग अलग भाषाएं और काम हैं सबके अपने अपने दुख भी हैं। फ्रेंच लड़का चौराहे पर गिटार बजाता है जिससे सुनने वाले उसे पैसे देते हैं, रशियन पैंटिंग करता है और पूरी दुनिया को पेंट कर देने के सपने देखता है ताकि दुनिया शांति से भर सके। अपने माँ बाप को खो चुके जापानी लड़के का पूरी दुनिया में कोई नहीं है और वह कोई भी सहयोगी काम कर लेता है। चे ग्वारा का पोर्ट्रेट कमरे में लगाये ये लड़के राक संगीत पसन्द करते हैं और बिन्दास जीवन जीते हैं। लड़की इन तीनों के साथ को जीने लगती है। विजयलक्ष्मी द्वारा दी गयी एक सामग्री को देने जब वह उसकी भारतीय मित्र की तलाश में जाती है जो जहाँ रहती है वह वहाँ का प्रसिद्ध रेडलाइट एरिया है, और परिस्तिथियोंवश अपनी छह बहनों व माँ को हिन्दुस्तान में पालने के लिए विदेश में काम करने आयी थी पर मन्दी के दुष्परिणामों वश उन्हें बिना बताये वहाँ सेक्सवर्कर बनना पड़ा था। खाने की तलाश करते हुए वह एक रेस्त्राँ चलाने वाले के सम्पर्क में आती है और उसके आग्रह पर भारतीय व्यंजन बना कर बेचने का प्रयोग करती है और रूम मेट्स के सहयोग से प्रयोग में सफल भी होती है। इसी बीच उसका पुराना मँगेतर अपनी गलती मनाते हुए उसे मनाने के लिए तलाशता हुआ आ जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वह भारत लौट कर बात करने का कह कर उसे लौटा देती है जिससे वह उम्मीद पाल लेता है, पर लौट कर वह पहला काम यही करती है कि साहस के साथ उसकी सगाई की अँगूठी लौटा देती है।
       नायिका के रूप में कँगना रानौत विजयलक्ष्मी के रूप में लिसा हिडेन और नायक के रूप में राजकुमार राव समेत सभी का अभिनय बेहतरीन है, न कहानी में कहीं झोल है और न ही विकास बहल के निर्देशन में। अच्छी फोटोग्राफी दर्शक को सीट पर बैठे बैठे ही पेरिस और एम्स्टर्डम घुमा देती है  लगातार लीक से हट कर बनती इन फिल्मों से बालीवुड के प्रति उम्मीद भरी निगाहों से देखा जा सकता है और उसके उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती है।   
वीरेन्द्र जैन

क्वीन : फिल्म समीक्षा /समय ताम्रकर

रानी (कंगना रनोट) के मेहंदी कार्यक्रम के सीन से जब फिल्म शुरू होती है तो लगता है कि एक ओर लाउड पंजाबी वेडिंग पर आधारित फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन कुछ मिनटों में यह गलतफहमी दूर हो जाती है। रानी को उसका होने वाला पति विजय (राजकुमार राव) शादी के दो दिन पहले बताता है कि स्टेटस में समानता न होने के कारण वह यह शादी नहीं कर सकता। लंदन से लौटने के बाद उसे रानी पिछड़ी हुई लगती है। 

आम लड़की रानी जिसने सड़क भी अकेले पार नहीं की, हनीमून पर अकेले जाने का तय करती है। हनीमून को लेकर उसने कई सपने देखे थे। वह अकेली पेरिस के लिए निकल पड़ती है और वहां से एम्सर्टडम। इस बाहरी यात्रा के साथ वह भीतरी यात्रा भी करती है और उसका वो पहलू सामने आता है जिससे उसका परिचय भी पहली बार होता है। एक घबराने और नर्वस रहने वाली लड़की से आत्मविश्वासी लड़की बनने की इस यात्रा के दर्शक साक्षी बनते हैं। 

में इस तरह की फिल्म और वह भी महिला किरदार को लेकर बनाने का साहस फिल्ममेकर नहीं कर पाते हैं और इस मायने में विकास बहल निर्देशित फिल्म 'क्वीन' अनोखी है। 'क्वीन' कई बार 'इंग्लिश-विंग्लिश' की याद दिलाती है, हालांकि दोनों का विषय और ट्रीटमेंट जुदा है।

की कहानी में बहुत ज्यादा ड्रामा नहीं है और न ही निर्देशक का प्रस्तुतिकरण भावुकता से भरा है। न रानी को हालात की मारी दिखाते हुए आंसू बहाउ दृश्य रखे गए हैं और न ही उसमें हो रहे बदलावों को घुमाव भरे ड्रामे के जरिये दिखाया गया है। कहानी के नाम पर रानी की यात्रा है और छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिये उसमें हो रहे बदलाव को निर्देशक ने दिखाया है। 

फिल्म की स्क्रिप्ट परवेज शेख, चैताली परमार और विकास बहल ने मिलकर लिखी है और उन्होंने कई छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया है। कई दृश्य ऐसे हैं जो खामोशी से बहुत कुछ कह जाते हैं। भारत में लड़कियों को अति-सुरक्षित माहौल में रखा जाता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता तक प्रभावित हो जाती है और व्यक्तित्व निखर नहीं पाता। रानी जहां भी जाती है उसके साथ उसका बहुत छोटा भाई भी साथ में जाता है जो वक्त पड़ने पर शायद ही उसकी रक्षा कर पाए, लेकिन यह उस मानसिकता को दर्शाता है कि लड़की की सुरक्षा के लिए एक मर्द का साथ होना जरूरी है भले ही वह बच्चा हो। 'क्वीन' में रानी के जरिये दिखाया गया है कि जब वह अकेले सफर करती है, होटल में रूकती है, चोर से भिड़ती है, कार ड्राइव करती है तो उसमें आत्मविश्वास जागता है। सुरक्षित माहौल न मिलने पर उसमें खुद करने का जज्बा जागता है। 

एम्सर्टडम पहुंचने पर रानी को तीन लड़कों के साथ रूम शेयर करना पड़ता है जिसमें से एक जापानी, एक फ्रेंच और एक रशियन है। इन तीनों के बीच एक भारतीय के जरिये दिखाया गया है कि सांस्कृतिक धरातल पर हम कितने ही अलग हो, भावनाओं के मामले में एक जैसे हैं। बाथरूम में छिपकली नजर आने पर सभी डर जाते हैं। सुनामी में अपने माता-पिता को खोने का दु:ख जापानी को हमेशा सालता रहता है और वह तब बेहतर महसूस करता है जब रानी अपने माता-पिता से बात करती है।

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इन गंभीर बातों को हल्के-फुल्के प्रस्तुतिकरण के द्वारा पेश किया गया है। बीच-बीच में मुस्कान लाने वाले प्रसंग आते रहते हैं जो लगातार मनोरंजन करते रहते हैं। रानी की दोस्त विजय लक्ष्मी (लिसा हेडन) और रानी के परिवार के बीच बातचीत वाले सीन हास्य से भरपूर हैं। फिल्म का अंत भी बेहतर तरीके से किया गया है। 

हालांकि फिल्म कई बार लंबी प्रतीत होती है और कुछ दृश्यों को अनावश्यक रूप से खींचा भी गया है। रानी के मंगेतर का हृदय परिवर्तन अचानक हो जाना अखरता भी है, लेकिन फिल्म की खूबियों के आगे ये छोटी-मोटी कमजोरियां गौण हैं। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है और निर्देशक ने गानों का उपयोग खूबसूरती से किया है। कई बार फिल्म बोझिल होती है तब अमित का संगीत फिल्म को संभाल लेता है और ऊर्जा से भर देता है। 'लंदन ठुमकदा', 'बदरा बहार', 'ओ गुजरिया' जैसे गीत बेहतरीन बन पड़े हैं। 

गैंगस्टर, लाइफ इन मेट्रो, फैशन, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों से साबित कर चुकी हैं कि वे बेहद प्रतिभाशाली एक्ट्रेस हैं और यह पूरी तरह से निर्दे‍शक पर निर्भर करता है कि उनका इस्तेमाल निर्देशक कैसे करता है। कई फिल्मों में कंगना ने बुरा अभिनय भी किया है, लेकिन कसूरवार निर्देशक को माना जा सकता है। 'क्वीन' में कंगना ने कमाल का अभिनय किया है। एक नर्वस, घबराई हुई लड़की जिसकी शादी दो दिन पहले टूट जाती है से लेकर आत्मविश्वासी लड़की के रूप में बदलने के सारे भाव उनके चेहरे पर नजर आते हैं। निर्देशक विकास बहल ने कंगना की उच्चारण संबंधी कमजोरियों को बड़ी सफाई से उनकी खूबी बना दिया है। 

लिसा हेडन को इतना बेहतर रोल कभी नहीं मिला। रोल के मुताबिक उन्होंने सेक्स अपील भी परोसी और अच्छा अभिनय भी किया। राजकुमार राव ने अभिनय की एक खास शैली अपना रखी है और वे अब एक जैसे लगते हैं। वे काबिल अभिनेता हैं और एक जैसे अभिनय से उन्हें बचना चाहिए। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का काम भी उम्दा है। 

जो अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं उन्हें 'क्वीन' जरूर देखना चाहिए। 

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बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, फैंटम प्रोडक्शन्स 
निर्माता : अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने
निर्देशक : विकास बहल 
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : कंगना रनोट, राजकुमार राव, लिसा हेडन, बोक्यो मिश, जेफरी हो, जोसेफ गिटोब
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 26 मिनट 
रेटिंग : 3.5/5

ज्ञान समाज के दरवाजे पर भारत की दस्तक.. बालेन्दु शर्मा दाधीच

केंद्र सरकार की 'डिजिटल इंडिया' नामक पहल भारत में सूचना क्रांति के दूसरे दौर का सूत्रपात कर सकती है। नागरिकों को तकनीकी दृष्टि से सक्षम बनाने, सरकारी सेवाओं को डिजिटल माध्यमों से जनता तक पहुँचाने, सूचना तकनीक और दूरसंचार के क्षेत्र में व्यापक आधारभूत विकास करने तथा विभिन्न विभागों व मंत्रालयों की डिजिटल सेवाओं को आपस में जोड़ने वाली इतनी बड़ी, सुनियोजित और समन्वित परियोजना की परिकल्पना भारत में अब तक नहीं की गई थी। हालाँकि केंद्र और राज्य सरकारें पिछले कुछ दशकों से कंप्यूटरीकरण और ई-प्रशासन को महत्व देती आई हैं और उन्होंने इस दिशा में अपने-अपने स्तर पर सफलताएं भी अर्जित की हैं, किंतु सूचना क्रांति में निहित व्यापक संभावनाओं की तुलना में ये उपलब्धियाँ बहुत सीमित हैं। 'डिजिटल इंडिया' को भारत की राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था, हमारी अर्थव्यवस्था और देश की जनता को ज्ञान आधारित भविष्य की ओर ले जाने के महत्वाकांक्षी प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
डिजिटल इंडिया के माध्यम से इंटरनेट को दोतरफा संपर्क, आग्रह और डिलीवरी के माध्यम के रूप में इतनी बड़ी आबादी तक ले जाया जा सके तो ई-प्रशासन, ई-कॉमर्स, ई-शिक्षा और ई-बैंकिंग जैसे क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की लागत वाली यह पहल इंटरनेट और संचार प्रौद्योगिकी, जिसे आईसीटी कहा जाता है, में निहित संभावनाओं, शक्तियों और सुविधाओं को भारत के गांव-गांव तक पहुँचाने में प्रभावी भूमिका निभा सकती है। हालाँकि लक्ष्य बहुत महत्वाकांक्षी तथा चुनौतीपूर्ण हैं किंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें स्वयं डिजिटल तकनीकों के प्रयोग में प्रवीणता के लिए सराहा जाता है, सन् 2019 तक पूरी होने वाली इस पहल में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं और इसके क्रियान्वयन की निगरानी करने वाले शीर्ष समूह का नेतृत्व कर रहे हैं।
केंद्र सरकार तीन बड़े लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रही है- पहला, देश में व्यापक स्तर पर आधारभूत डिजिटल सेवाओं का विकास जिनका प्रयोग नागरिकों द्वारा बेरोकटोक किया जा सके। दूसरा, जनता को इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से सरकारी सेवाएं तथा प्रशासनिक सुविधाएं हर समय उपलब्ध रहें, जिसे तकनीकी भाषा में 'ऑन डिमांड' कहा जाता है, अर्थात् जब चाहें, सेवा पाएँ। तीसरा लक्ष्य है- भारतीय नागरिकों को तकनीकी दृष्टि से सक्षम और सबल बनाना। इसके लिए ज़रूरी है कि तकनीकी उपकरणों, सुविधाओं, ज्ञान और सूचनाओं को समाज के सभी स्तरों तक पहुँचाया जाए।
वैश्विक रुझानों के अनुरूप
डिजिटल इंडिया की अवधारणा तकनीकी विश्व के ताजा रुझानों के अनुरूप है जहाँ दुनिया भर की आबादी को इंटरनेट से जोड़ने की प्रक्रिया चल रही है। न सिर्फ सरकारों के स्तर पर बल्कि निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा भी। दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्क जुकरबर्ग ने पिछले दिनों अपने भारत दौरे के समय कहा था कि भारत के 23 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े हैं जबकि एक अरब आज भी इससे वंचित हैं। यदि भारत अपने गांवों को कनेक्ट करने में सफल रहता है तो दुनिया उसकी ओर ध्यान देने पर मजबूर होगी। देश के विशाल समाज और उसमें निहित बाजार तक पहुँच का एक आसान तथा शक्तिशाली जरिया उपलब्ध हो जाएगा।

मार्क जुकरबर्ग के बयान के कारोबारी निहितार्थ हो सकते हैं, लेकिन उनकी टिप्पणी व्यावहारिक है। मैकिन्सी के अनुसार विश्व के सर्वाधिक इंटरनेट-वंचित लोग भारत में ही हैं। अगर इतनी बड़ी आबादी इंटरनेट से जुड़ जाती है और इस माध्यम का प्रयोग उसके साथ सीधे कनेक्ट करने के लिए किया जाता है तो उसके परिणाम कितने विस्मयकारी हो सकते हैं, इसकी कल्पना मात्र ही रोमांचित कर देती है। इंटरनेट को दोतरफा संपर्क, आग्रह और डिलीवरी के माध्यम के रूप में इतनी बड़ी आबादी तक ले जाया जा सके तो ई-प्रशासन, ई-कॉमर्स, ई-शिक्षा और ई-बैंकिंग जैसे क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा। केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद को यकीन है कि देश में डिजिटल क्रांति और मोबाइल क्रांति के घटित होने के कगार पर है। महत्वपूर्ण यह है कि यह कनेक्टिविटी प्रशासन और जनता के बीच मौजूद अवरोधों को ध्वस्त करने में भी योगदान देंगी और हमारी प्रशासनिक मशीनरी को ज्यादा पारदर्शी तथा जवाबदेह बनाएंगी।
केंद्र सरकार ने सन् 2017 तक 2.5 लाख गांवों में ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। लगभग इतने ही विद्यालयों को सन् 2019 तक वाइ-फाइ सुविधा से लैस कर दिया जाएगा। नैशनल ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क, जिस पर करीब 35 हजार करोड़ रुपए की राशि खर्च की जाने वाली है, ग्रामीण जनता को इंटरनेट सुपरहाइवे पर ले आएगा। डिजिटल सेवाओं के सार्थक प्रयोग के लिए डिजिटल शिक्षा और जागरूकता भी बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र सरकार का 'दिशा' नामक कार्यक्रम इसमें हाथ बँटाएगा और बड़ी संख्या में भारतीय नागरिकों को डिजिटल साक्षरता की ओर भी ले जाएगा।
श्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते समय ई-गवर्नेंस के साथ-साथ एम-गवर्नेंस का भी जिक्र किया था, जिसका अर्थ है सचल युक्तियों या मोबाइल गैजेट्स के माध्यम से तकनीकी सेवाओं तथा सुविधाओं की डिलीवरी। डिजिटल इंडिया परियोजना में मोबाइल फोन के प्रयोग को काफी महत्व दिया जा रहा है क्योंकि यह सरकारी सेवाओं को घर-घर तक ले जाने का आसान जरिया बन सकता है। भारत में कंप्यूटर और इंटरनेट का प्रयोग आज भी बहुत सीमित है किंतु मोबाइल कनेक्शनों के प्रसार की दृष्टि से हम चीन के बाद विश्व में दूसरे नंबर पर हैं। अगस्त 2014 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 80 करोड़ से भी अधिक मोबाइल कनेक्शन मौजूद हैं। जहाँ कंप्यूटर और इंटरनेट के प्रयोग के लिए बिजली की उपलब्धता एक बड़ा मुद्दा है, वहीं मोबाइल के साथ ऐसा नहीं है इसलिए भारतीय परिस्थितियों में ई-गवरनेंस की तुलना में एम-गवरनेंस अधिक प्रभावी सिद्ध हो सकता है।
विकास के नौ स्तंभ
डिजिटल इंडिया के तहत विकास के नौ स्तंभ चिन्हित किए गए हैं, जिनमें ब्रॉडबैंड हाइवेज, सर्वत्र उपलब्ध मोबाइल कनेक्टिविटी, इंटरनेट के सार्वजनिक प्रयोग की सहज सुविधा, ई-प्रशासन, ई-क्रांति- जिसका अर्थ सेवाओं की इलेक्ट्रॉनिक डिलीवरी से है-, सबके लिए सूचना, इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण, रोजगार के लिए सूचना प्रौद्योगिकी तथा अर्ली हार्वेस्ट कार्यक्रम शामिल हैं। केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों को निर्देश दिए गए हैं कि वे ऐसी सेवाओं और सुविधाओं का विकास करने में जुटें जिन्हें आईसीटी के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया जा सके। इनमें स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा, न्यायिक सेवाएँ, राजस्व सेवाएँ, मोबाइल बैंकिंग आदि शामिल हो सकती हैं। फिलहाल इन विभागों की तरफ से डिजिटल माध्यमों से उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाएं सीमित हैं और उनके बीच कोई स्पष्ट तालमेल नहीं है। एक केंद्रीय तंत्र के अधीन शामिल कर लिए जाने पर ऐसा तालमेल सुनिश्चित किया जा सकेगा और वे एक-दूसरे से लाभान्वित हो सकेंगी। राज्यों के स्तर पर डिजिटल तकनीकों, सुविधाओं और सेवाओं के विकास की एक अलग, समानांतर प्रक्रिया चल रही है। ज़रूरत राज्यों की परियोजनाओं को भी डिजिटल इंडिया के दायरे में लाने की है ताकि अनावश्यक दोहराव, भ्रम और अतिरिक्त खर्चों से बचा जा सके। सरकार इस संदर्भ में राज्यों की सहमति हासिल करने का प्रयास कर रही है। इस संदर्भ में राज्यों के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रियों और सचिवों का राष्ट्रीय सम्मेलन भी आयोजित किया जा चुका है, जिसमें केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा है कि देश डिजिटल क्रांति के मुहाने पर खड़ा है।

डिजिटल इंडिया के लिए निर्धारित सन् 2019 की समय सीमा बहुत दूर नहीं है, जो इतनी विशाल परियोजना के लिए बड़ी चुनौती सिद्ध होने वाली है। भारत में बिजली, आधारभूत सुविधाओं, संचार तंत्र आदि की भी सीमाएं हैं। लास्ट माइल कनेक्टिविटी, यानी अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक सेवाएं मुहैया कराने के लिए विशाल तंत्र के निर्माण की जरूरत है और उसे स्थायित्व देने के लिहाज से लाभप्रद बनाए जाने की भी। सरकार को इस चुनौती का अहसास है और उसे नए सहयोगियों के साथ जुड़ने में आपत्ति नहीं है। सरकार न सिर्फ आम लोगों, विशेषज्ञों आदि को जोड़ने की इच्छुक है बल्कि निजी क्षेत्र की कंपनियों को साथ लेकर चलने में भी कोई हिचक नहीं है। ‘डिजिटल इंडिया’ में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है और यही वजह है कि गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, अमेजॉन जैसी विश्व की अग्रणी आईटी कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों ने पिछले दिनों भारत का दौरा किया है। आईबीएम और सिस्को जैसी अन्य कंपनियाँ भी परियोजना में अपनी दिलचस्पी दिखा चुकी है। भारत के आईटी उद्योग के लिए भी बड़ा कारोबारी अवसर उभरने जा रहा है।
भारत के समाज और अर्थव्यवस्था में विकास की व्यापक संभावनाएं निहित हैं किंतु समुचित आधारभूत ढाँचे के अभाव में हम उन संभावनाओं का पर्याप्त दोहन नहीं कर पाते। डिजिटल इंडिया परियोजना भारत में डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में मील का पत्थर सिद्ध होने वाली है। अगले पाँच साल में जिस बड़े पैमाने पर आधारभूत सुविधाओं का विकास होने वाला है, वह बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़े हमारे व्यापक आर्थिक लक्ष्यों के भी अनुकूल है। उम्मीद करनी चाहिए कि डिजिटल इंडिया न सिर्फ सरकार और नागरिकों के बीच दूरी को पाट सकेगी बल्कि इक्कीसवीं सदी की अपेक्षाओं के अनुरूप हमें ज्ञान आधारित भविष्य की ओर भी ले जा सकेगी।

मीडिया जमीन से जुड़े, नई तकनीक अपनाए:

मीडिया जमीन से जुड़े, नई तकनीक
अपनाए: आलोक तोमर स्मृति विमर्श

प्रभासाक्षी  21 मार्च 2015    नई दिल्ली

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छोटे शहरों के उपेक्षित लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकारों की संख्या तेजी से सिकुड़ रही है। इसे गंभीरता से लेना होगा, तभी पत्रकारिता जिंदा रहेगी। इंटरनेट युग में पारंपरिक मीडिया के सामने नई किस्म की चुनौतियाँ सामने आ रही हैं जो कन्टेन्ट से लेकर डिलीवरी और विज्ञापनों से लेकर प्रॉडक्शन के स्तर तक हैं। इन्हें अनदेखा करना कुछ वर्ष बाद उसके लिए बड़ा संकट पैदा कर सकता है। यह बात आलोक तोमर के चौथे स्मृति विमर्श पर वक्ताओं ने कही। शुक्रवार को कांस्टीट्यूशन क्लब में इस बाबत एक परिचर्चा का भी आयोजन किया गया था, जिसमें राजनीति से लेकर मीडिया के कई अहम लोगों ने अपने विचार रखे।

परिचर्चा 'भविष्य के मीडिया की चुनौतियाँ' विषय पर हुई जिसमें केंद्रीय इस्पात और खान मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी, सांसद केसी त्यागी, प्रभात झा और डीपी त्रिपाठी, शिक्षाविद् निशीथ राय, बीबीसी हिंदी के संपादक निधीश त्यागी, प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच, टेलीविजन पत्रकार दीपक चौरसिया ने अपने विचार रखे। संचालन भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रो. आनंद प्रधान ने किया। कार्यक्रम में आलोक तोमर की पत्नी सुप्रिया भी मौजूद थीं। अन्य उपस्थित लोगों में आज तक के प्रबंध संपादक सुप्रिय प्रसाद, जनसत्ता के संपादक ओम थानवी, टेलीविजन पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी, शैलेष, मुकेश कुमार, अनुरंजन झा, चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय, प्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव, मीडिया वेबसाइटों के संपादक यशवंत सिंह, पुष्कर पुष्प आदि शामिल थे।

इस मौके पर इस्पात और खान मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आलोक तोमर के साथ अपने संबंधों का जिक्र किया और हाशिए के लोगों की आवाज उठाने की अपील की। प्रभात झा ने मीडिया की चुनौतियों को पत्रकार की अपनी समस्याओं और सीमाओं से जोड़ा। उनका कहना था कि पत्रकार खुद जीवन यापन की समस्या से जूझ रहा है और तमाम तरह के दबावों में काम कर रहा है ऐसे में सिद्धांतों पर टिके रहना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। उन्होंने इन हालात को बदलने की अपील की। पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने पत्रकारिता के मौजूदा दौर से संबंधित अनेक चुनौतियों का जिक्र किया और कहा कि पिछली सरकार ने ऐसे कई कदम उठाए थे जिनसे विज्ञापनों पर टेलीविजन पत्रकारिता की निर्भरता कम होती। यह उसे बाहरी प्रभावों से मुक्त करने की दिशा में अहम कदम था। उन्होंने कहा कि डीटीएच प्रणाली की स्थापना से टेलीविजन चैनलों को विज्ञापनों से अलग भी आय अर्जित करने का एक मजबूत जरिया हासिल हुआ है।

टेलीविजन पत्रकार दीपक चौरसिया ने कुछ वक्ताओं के इस आकलन से अहसमति जताई कि आज की पत्रकारिता जमीन से जुड़े मुद्दों से दूर होती जा रही है और गरीब तथा उपेक्षित व्यक्ति के लिए संघर्ष करने को कोई तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि आज भी पत्रकारिता जन-सरोकारों से जुड़ी है। वह बाहरी दबावों (आर्थिक या राजनैतिक) से मुक्त रहते हुए काम करने में सक्षम है। इस सिलसिले में उन्होंने बदायूं की दो लड़कियों की हत्या/आत्महत्या की घटना का जिक्र किया जिसे उभारने में मीडिया की अहम भूमिका रही।

प्रभासाक्षी के समूह संपादक बालेन्दु शर्मा दाधीच ने कहा कि मीडिया के सामने मौजूद चुनौतियों पर चर्चा करते समय हम प्रायः सैद्धांतिक और आदर्शवादी पक्षों में अधिक उलझ जाते हैं और उन व्यावहारिक चुनौतियों को अनदेखा कर देते हैं जो भविष्य में उसके लिए संकट पैदा कर सकती हैं। कार्यक्रम के मूल विषय 'भविष्य के मीडिया की चुनौतियाँ' पर बोलते हुए श्री दाधीच ने कहा कि वैकल्पिक मीडिया का उभार प्रिंट और टेलीविजन दोनों के लिए आने वाले दिनों में बड़ा खतरा सिद्ध होने वाला है। उन्होंने अमेरिका में सन् 2009-10 के दौर में बडी संख्या में अखबारों के बंद होने का जिक्र करते हुए कहा कि ऑनलाइन मीडिया पारंपरिक समाचार माध्यमों के पाठक और विज्ञापन दोनों को आकर्षित करने में सफल हो रहा है।

श्री दाधीच ने कहा कि भारत में अभी इसका विशेष प्रभाव दिखाई नहीं दिया है जिसके लिए भारतीय अखबारों की प्रशंसा की जानी चाहिए। अलबत्ता, भारत का प्रिंट मीडिया यदि डिजिटल मीडिया के प्रभाव से बचने में सफल रहा तो उसमें देश में इंटरनेट और तकनीकी माध्यमों का अधिक प्रसार न होना भी एक बड़ा कारण है। जैसे-जैसे यह स्थिति बदलेगी, डिजिटल माध्यमों की चुनौती बड़ी होती चली जाएगी। उन्होंने कहा कि टेलीविजन को भी देर सबेर डिजिटल माध्यमों की चुनौती का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इंटरनेट ने वीडियो कन्टेन्ट की डिलीवरी के तरीके बदलने शुरू कर दिए हैं। अब एक नई किस्म का वीडियो कन्टेन्ट और नई तरह के इंटरनेट आधारित वीडियो प्लेटफॉर्म उभर रहे हैं जो पारंपरिक मीडिया के लिए खतरा पैदा करने में सक्षम हैं। बालेन्दु ने विज्ञापनों के क्षेत्र में आ रहे बदलावों का भी जिक्र किया और कहा कि ऑनलाइन विज्ञापन प्लेटफॉर्म न सिर्फ विज्ञापनदाता बल्कि दर्शक/पाठक के भी हितों के अनुकूल हैं और टेलीविजन जैसे पारंपरिक माध्यम लंबे समय तक पुराने तौर तरीकों पर आश्रित नहीं रह सकते। इस परिस्थिति का सामना करने के लिए इनोवेशन की तरफ बढ़ने की जरूरत है और नए मीडिया के साथ आने की जरूरत है।

बीबीसी हिंदी के संपादक निधीश त्यागी ने कहा कि आज के पत्रकारों को भाषा पर ध्यान देने की बेहद ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि सही वाक्य न लिख पाने वाले पत्रकारों की पूरी की पूरी पीढ़ी मीडिया के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ी भावी चुनौती सिद्ध होने वाली है।

कार्यक्रम के दौरान भारतीय जनसंचार संस्थान के दो छात्रों नंद राम प्रजापति और आशीष कुमार शुक्ला को आलोक तोमर फेलोशिप प्रदान की गई। लखनऊ स्थित शकुंतला देवी पुनर्वास विश्वविद्यालय के उप कुलपति निशीथ राय ने हिंदी विभाग के टॉपर छात्र को आलोक तोमर स्मृति स्वर्ण पदक देने की घोषणा की।