Sunday, June 27, 2010

विद्यार्थियों ने शुरु किया राष्ट्रमंडल खेलों पर ब्लॉग

राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन में अब सौ से भी कम दिन रह गये हैं
खेलों की मशाल सभी प्रतिभागी देशों में घूम कर भारत में 25 जून को प्रवेश कर
गयी .पूरा देश अब राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के लिये अपनी अपनी
भागीदारी सुनिश्चित् करने में जुट गया है तो भला दिल्ली विश्वविद्यालय
कैसे पीछे रहता! दिल्ली विशविद्यालय तो वैसे भी रग्बी -7 का मेजबान मैदान
है.चाहे मैदान की बात हो या फिर वालिंटियर की बात हो दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने अद्भुत जोश दिखाया
इसी क्रम में श्रीगुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज के स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग
तथा वेब जर्नलिज्म के विद्यार्थियों ने दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों पर ब्लॉग शुरु किया www.commonwealthgamesindelhi.blogspot.com नामक इस ब्लॉग में एक ओर खेलों के इतिहास पर भी सामग्री देने का प्रयास किया गया है ,वहीं आगामी खेलों के चल रहे टेस्ट इवेंट्स की भी कवरेज है ,साथ ही प्रयास है कि दिल्ली के बारे में भी वे जानकारियाँ दी जाएँ जो पर्यटन की दृष्टि से भी उपयोगी हों.यह ब्लॉग हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में चल रहा है


लिमका बुक ऑफ़ रिकार्ड के खेल विशेषज्ञ डॉ सुरेश कुमार लॉ के सहयोग से विद्यार्थी खेलों के रिकार्ड,खिलाड़ियों का प्रदर्शन आदि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं.गौरतलब है कि खालसा कॉलेज ने गत वर्ष देश में पहली बार स्पोर्ट्स इकॉनामिक्स एंड मार्केटिंग तथा वेब जर्नलिज्म पर सर्टिफ़िकेट कोर्स शुरु किये.इन दोनों पाठ्यक्रमों में एडमिशन ग्रेजुएशन कर रहे स्टूडेंट से लेकर नौकरीशुदा लोग तक ले सकते हैं.इन पाठ्यक्रमों में पढा़ई आडियो विजुअल पद्धति से होती है.साथ ही क्लास की रिपोर्ट ब्लॉग पर अपलोड की जाती है.तीन महीने के इन पाठ्यक्रमों में मूल्यांकन पद्धति परीक्षा आधारित न होकर प्रेजेंटेशन और फील्ड अटैचमेंट के आधार पर होती है.
जून में इन पाठ्यक्रमों की प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है

Saturday, June 19, 2010

अमेरिका में युवा हिन्दी शिविर-डॉ० सुरेन्द्र गंभीर/निदेशक – युवा हिन्दी शिविर अटलाँटा




२००७ में जब न्यूयार्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ तो उसमें अनेक

प्रवासी भारतीयों को एक बात खटकी कि उसमें प्रवासी भारतीयों की युवा पीढ़ी

के लिए कुछ नहीं था। यदि इस सम्मेलन में हमारी युवा पीढ़ी के लिए भी कुछ

कार्यक्रम होते तो प्रवासी संदर्भ में हमारी सांस्कृतिक भाषा और हमारे

मूल्यों को कुछ प्रोत्साहन मिलता। इसी विचार ने २००९ में युवा हिन्दी

संस्थान को जन्म दिया। इसी संस्थान के तत्वावधान में अमेरिका के अटलाँटा

जार्जिया प्रदेश में जून १९ से २८ तक १० दिन का भाषा शिविर युवा पीढ़ी के

१०० सदस्यों के लिए हो रहा है।

इस कार्यक्रम को जहां एक ओर अमरीकी सरकार की उदार आर्थिक सहायता प्राप्त

है वहां दूसरी ओर अमरीका के प्रतिष्ठित कई विश्वविद्यलायों और शोध

संस्थानों का समर्थन और सहयोग प्राप्त है। इस शिविर का दैनिक कार्यक्रम

और गतिविधियों का समायोजन भाषा-विज्ञान के शोध-समर्थित नियमों के आधार पर

होगा ताकि युवाओं को इस सांस्कृतिक अवगाहन से अधिकाधिक भाषा-लाभ हो और

हिन्दी भाषा में प्रवीणता को बढ़ाने के लिए उनके भविष्य के द्वार खुलें।

अमरीकी सरकार की भी यह हमसे अपेक्षा है । युवा हिन्दी संस्थान के

कार्यकर्ता उसी दिशा में पिछले कई महीनों से इसी योजना को कार्यान्वित

करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

शिविर का कार्यक्रम प्रातः नौ बजे योगाभ्यास से शुरू होगा और उसके बाद

हिन्दी शिक्षण की कक्षाएं, कंप्यूटर लैब, हस्तकला, अनेकानेक खेल

(क्रिकेट, बैडमिंटन, टेबलटैनिस, शतरंज, खो-खो, पिट्ठू आदि), नाटक, संगीत,

नेचर वॉक, सांस्कृतिक कार्यक्रम और बॉलीवुड के गरमागरम गानों के साथ नाच

का दैनिक कार्यक्रम है। दोपहर के खाने के समय भी हिन्दी के कुछ चलचित्र

दिखाए जाएंगे जिसमें सब-टाइटल रहेंगे। शिविर की सब गतिविधियों में सब

निर्दैश और सभी बातचीत हिन्दी के माध्यम से ही संपन्न होगी। शिविर में

अंग्रेज़ी का प्रयोग वर्जित है। भाषा और संस्कृति में अवगाहन और भाषा

सीखने का और उसे आत्मसात् करने का यही सहज तरीका है।

अमेरिका में हिन्दी की शिक्षा के लिए यह स्वर्णिम समय है। अमरीका सरकार

ने हिन्दी को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में स्वीकार किया है और फलस्वरूप

सभी सरकारी स्कूलों में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी को पढ़ाने के द्वार

खोल दिए गए हैं। अमेरिकी सरकार का यह मानना है कि भविष्य में आर्थिक और

राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरते हुए भारत के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय

और राजनयिक संबंधों के संदर्भ में हिन्दी का महत्व बहुत अधिक है और यह

दिन-ब-दिन बढ़ने वाला है। इसी सार्वभौमिक राजनैतिक विश्लेषण को ध्यान में

रखते हुए अमरीका की अगली पीढ़ी को दुनिया की महत्वपूर्ण भाषाओं और उनकी

संस्कृतियों के ज्ञान से लैस करना बहुत आवश्यक समझा जा रहा है और इसी

उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस दीर्घकालीन योजना की व्यवस्था हुई है ।

भाषाओं की इस महत्वपूर्ण योजना को व्हाइट हाउस के नेशनल सिक्योरिटी

लैंगवेज इनिश्येटिव के तहत क्रियान्वित किया जा रहा है।

भाषा हमारे चिंतन की वाहिका है और हर भाषा का हर मानव के कुछ विशिष्ट

मूल्यों के साथ विशेष संयोग होता है। जहां एक ओर प्रवासी युवा पीढ़ी के

सदस्य अमरीका को एक समर्थ देश बनाने में अपना योगदान देंगे वहां भविष्य

में विभिन्न क्षेत्रों में वे अपने विभिन्न व्यवसायों के लिए भी अपने

कैरियर का मार्ग प्रशस्त करेंगे। हिन्दी भाषा ज्ञान के साथ हमारी युवा

पीढ़ी के संबंध भारत के साथ भी संपुष्ट होंगे । उदीयमान भारत से लेकर

अमरीका तक सभी के भविष्य के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण दिशा है।

अमरीकी समाज में द्विभाषी लोगों की मांग बराबर बढ़ रही है और भविष्य में

यह और ज़्यादा बढ़ने वाली है। चाहे वे डॉक्टर हों, वकालत के पेशे में हों,

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में हों, सरकारी महकमों में हों – सब जगह दूसरी

भाषा पर उस भाषा से संबंधित समाजों के मूल्यों और अन्तर्निहित

विचारधाराओं को समझने वाले और उन पर अधिकारपूर्वक बात करने वालों को

वरीयता प्राप्त है। अमरीका के वर्तमान वयस्क कर्मचारियों को विदेशी

भाषाओं की शिक्षा देने के लिए सरकार के कई अपने स्कूल भी हैं जिनमें

वर्जीनिया में स्थित फ़ॉरन सर्विस इंस्टीट्यूट और मांट्रे कैलिफ़ोनिया में

स्थित डिफ़ैंस लैंग्वेज इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं।

Wednesday, June 9, 2010

मोलतोल को उप संपादक चाहिए

मोलतोल डॉट इन हिंदी वेबसाइट को तीन उप संपादक चाहिए। कॉमर्स ग्रेजुएट के साथ पत्रकारिता या बिजनैस खबरें खासकर शेयर बाजार से जुड़ी खबरें जुटाने एवं तैयार करने की जानकारी। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करने में सक्षम। अधिकतम आयु 25 वर्ष।






मोलतोल की जल्‍द आ रही गुजराती वेबसाइट के लिए दो उप संपादक चाहिए। कॉमर्स ग्रेजुएट के साथ पत्रकारिता या बिजनैस खबरें खासकर शेयर बाजार से जुड़ी खबरें जुटाने एवं तैयार करने की जानकारी। अंग्रेजी एवं हिंदी से भी गुजराती में अनुवाद करने में सक्षम। अधिकतम आयु 25 वर्ष। सभी नियुक्तियां मुंबई के लिए। इसके अलावा ऐसे युवा पत्रकारों की भी जरुरत है जो दूसरे शहरों में रहते हुए भी इस साइट के लिए इंटरनेट के माध्‍यम से कार्य कर सकें। अपना बायोडेटा info@moltol.in This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर भेजें।

Sunday, June 6, 2010

लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों/विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, से. नि./ @ "हिन्दी भारत

पुराणों में वर्णित विभिन्न देवी देवताओं के अपने अपने निश्चित वाहन हैं, यथा लक्ष्मी का वाहन उल्लू, कार्तिकेय का मयूर, सरस्वती का हंस, गणेशजी का वाहन चूहा इत्यादि। यह विचित्र लगते हैं यह तो निश्चित है कि ये

वाहन प्रतीक हैं, यथार्थ नहीं। हाथी के सिर वाले, लम्बोदर गणेश जी चूहे पर वास्तव में सवारी तो नहीं कर सकते, या लक्ष्मी देवी उल्लू जैसे छोटेपक्षी पर। जब मैंने इन प्रतीकों पर वैज्ञानिक सोच के साथ शोध किया तब मुझे सुखद आश्चर्य पर सुखद आश्चर्य हुए। मैंने इन पर जो लेख लिखे और व्याख्यान दिये वे बहुत लोकप्रिय रहे।

इन लेखों को रोचक बनाना भी अनिवार्य है। किन्तु उनके पौराणिक होने का लाभ यह है कि, उदाहरणार्थ, इस प्रश्न पर कि ‘लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों? पाठकों तथा श्रोताओं में जिज्ञासा एकदम जाग उठती है। इन सारे वाहनों के वैज्ञानिक कारणों का विस्तृत वर्णन तो इस प्रपत्र में उचित नहीं। किन्तु अपनी अवधारणा को सिद्ध करने के लिये उदाहरण स्वरूप लक्ष्मी के वाहन उल्लू का संक्षिप्त वर्णन उचित होगा। यह उल्लू के लक्ष्मी जी के वाहन होने की संकल्पना कृषि युग की है। वैसे यह आज भी सत्य है कि किसान अनाज की खेती कर ‘धन’ पैदा करता है। किसान के दो प्रमुख शत्रु हैं कीड़े और चूहे। कीड़ों का सफाया तो सभी पक्षी करते रहते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं, जो इसके लिये सर्वोत्तम तरीका है। किन्तु चूहों का शिकार बहुत कम पक्षी कर पाते हैं। एक तो इसलिये कि वे काले रंग के होते हैं जो सरलता पूर्वक नहीं दिखते। साथ ही वे बहुत चपल, चौकस और चतुर होते हैं। इसलिये मुख्यतया बाज वंश के पक्षी और साँप इत्यादि इनके शिकार में कुछ हद तक सफल हो पाते हैं।

दूसरे, चूहे अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिये रात्रि में फसलों पर, अनाज पर आक्रमण करते हैं और तब बाज तथा साँप आदि भी इनका शिकार नहीं कर सकते। एक मात्र उल्लू कुल के पक्षी ही रात्रि में इनका शिकार कर सकते हैं।
जो कार्य बाज जैसे सशक्त पक्षी नहीं कर सकते, उल्लू किस तरह करते हैं? सबसे पहले तो रात्रि के अंधकार में काले चूहों का शिकार करने के लिये आँखों का अधिक संवेदनशील होना आवश्यक है। सभी स्तनपायी प्राणियों तथा पक्षियों में उल्लू की आँखें उसके शरीर की तुलना में बहुत बड़ी हैं, वरन इतनी बड़ी हैं कि वह आँखों को अपने कोटर में घुमा भी नहीं सकता जैसा कि अन्य सभी पक्षी कर सकते हैं। अब न घुमा सकने वाली कमजोरी को दूर करने के लिये वह अपनी गर्दन तेजी से तथा पूरे पीछे तक घुमा सकता है। दूसरी योग्यता, जाति पक्षी के लिये और भी कठिन है। जब उल्लू या कोई भी पक्षी चूहे पर आक्रमण करते हैं, तब उनके उड़ान की फड़फड़ाहट को सुनकर चूहे चपलता से भाग कर छिप जाते हैं। इसलिये बाज भी चूहों का शिकार अपेक्षाकृत खुले स्थानों में कर सकते हैं ताकि वे भागते हुए चूहों को भी पकड़ सकें। किन्तु चूहे अधिकांशतया खुले स्थानों के बजाय लहलहाते खेतों या झाड़ियों में छिपकर अपना आहार खोजते हैं, और वह भी रात में। वहाँ यदि चूहे ने शिकारी पक्षी की फड़फड़ाहट सुन ली तो वे तुरन्त कहीं भी छिप जाते हैं। उल्लू की दूसरी अद्वितीय योग्यता है कि उसके उड़ते समय फड़फड़ाहट की आवाज नहीं आती। यह क्षमता उसके पंखों के अस्तरों के नरम रोमों की बनावट के कारण आती है। उल्लू को तीसरी आवश्यकता होती है तेज उड़ान की क्षमता के साथ धीमी उड़ान की भी। यह तो हम विमानों के संसार में भी हमेशा देखते हैं कि तेज उड़ान वाले विमान की धीमी गति भी कम तेज उड़ने वाले विमान की धीमी गति से तेज होती है। तेज उड़ान की आवश्यकता तो उल्लू को अपने बचाव के लिये तथा ऊपर से एक बार चूहे को ‘देखने’ पर तेजी से चूहे तक पहुँचने के लिये होती है। तथा झाड़ियों आदि के पास पहुँच कर धीमी उड़ान की आवश्यकता इसलिए होती है कि वह उस घिरे स्थान में चपल चूहे को बदलती दिशाओं में भागने के बावजूद पकड़ सके। यह योग्यता भी अपने विशेष नरम परों के कारण उल्लू में है, बाज पक्षियों में नहीं।



यदि चूहा अधिकांशतया लहलहाते खेतो में या झाड़ियों में छिपते हुए अपना कार्य करता है तब उड़ते हुए पक्षी द्वारा उसे देखना तो दुर्लभ ही होगा। चूहे आपस में चूँ चूँ करते हुए एक दूसरे से सम्पर्क रखते हैं। क्या यह महीन तथा धीमी चूँ चूँ कोई पक्षी सुन सकता है? उल्लू न केवल सुन सकता है वरन सबसे अधिक संवेदनशीलता से सुन सकता है। चूहे की चूँ चूँ की प्रमुख ध्वनि–आवृत्ति 8000 हर्ट्ज़ के आसपास होती है, और उल्लू के कानों की श्रवण शक्ति 8000 हर्ट्ज़ के आसपास अधिकतम संवेदनशील होती है! साथ ही इस ऊँची आवाज का लाभ उल्लू को यह मिलता है कि वह उस आवाज को सुनकर अधिक परिशुद्धता से उसकी दिशा का निर्धारण कर सकता है। यह हुई उल्लू की चौथी अद्वितीयता।

उल्लू में एक और गुण है जो उसके काम में आता है, यद्यपि वह अद्वितीय नहीं। चूँकि उसे शीत ऋतु की रातों में भी उड़ना पड़ता है, उसके अस्तर के रोएँ उसे भयंकर शीत से बचाने में सक्षम है।यह उसकी पाँचवीं अद्वितीयता है।

उल्लू की छठवीं अद्वितीयता है उसकी छोटी चोँच। यह कैसे? चोँच हड्डियों के समान भारी होती है। इस सब गुणों के बल पर इस पृथ्वी पर चूहों का सर्वाधिक सफल शिकार उल्लू ही करते हैं। और चूहे किसानों के अनाज का सर्वाधिक नुकसान कर सकते हैं। इसलिये उल्लू किसानों के अनाज में वृद्धि करते हैं, अर्थात वे उसके घर में लक्ष्मी लाते हैं, अर्थात लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। इसकी उपरोक्त चार योग्यताओं के अतिरिक्त, जो कि वैज्ञानिक विश्लेषण से समझ में आई हैं,



लक्ष्मी का एक सामाजिक गुण भी है, जिसके फलस्वरूप उल्लू लक्ष्मी का वाहन बन सका है। किसी व्यक्ति के पास कब अचानक लक्ष्मी आ जाएगी और कब चली जाएगी, कोई नहीं जानता – प्रेम जी अचानक कुछ महीने भारत के सर्वाधिक धनवान व्यक्ति रहे, और अचानक ‘साफ्टवेअर’ उद्योग ढीला पड़ने के कारण वे नीचे गिर गये। चूँकि उल्लू के उड़ने की आहट भी नहीं आती, अतएव लक्ष्मी उस पर सवार होकर कब आ जाएँगी या चली जाएँगी, पता नहीं चलता।

यद्यपि हमारे ऋषियों के पास वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे, तथापि उनकी अवलोकन दृष्टि, विश्लेषण करने और संश्लेषण करने की शक्ति तीव्र थी। उल्लू को श्री लक्ष्मी का वाहन बनाना यह सब हमारे ऋषियों की तीक्ष्ण अवलोकन दृष्टि, घटनाओं को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि और सामाजिक–हित की भावना दर्शाता है। आमतौर पर उल्लू को लोग निशाचर मानते हैं, उसकी आवाज को अपशकुन मानते हैं, उसे खंडहर बनाने वाला मानते हैं। इसलिये आम लोगों के मन में उल्लू के प्रति सहानुभूति तथा प्रेम न होकर घृणा ही रहती है। इस दुर्भावना को ठीक करने के लिये भी उल्लू को लक्ष्मी का वाहन बनाया गया। और यह उदाहरण कोई एक अकेला उदाहरण नहीं है। सरस्वती का वाहन हंस, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणेश जी का वाहन चूहा भी वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत समाजोपयोगी संकल्पनाएँ हैं।

इन अवधारणाओं का प्रचार अत्यंत सीमित होता यदि इन्हें पुराणों में रखकर धार्मिक रूप न दिया होता। इसलिए इस देश में उल्लू, मयूर, हंस, सारस, चकवा, नीलकंठ, तोता, सुपर्ण (गरूड़), मेंढक, गिद्ध आदि को, और भी वृक्षों को, जंगलों को इस तरह धार्मिक उपाख्यानों से जोड़कर, उनकी रक्षा अर्थात पर्यावरण की रक्षा हजारों वर्षों से की गई है। किन्तु अब अंग्रेजी की शिक्षा ने तो नहीं किन्तु अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ने हमारी आज की पीढ़ी को इस सब ज्ञान से काट दिया है। और आज हम भी पाश्चात्य संसार की तरह प्रकृति का शोषण करने में लग गये हैं। तथा पर्यावरण एवं प्रकृति का संरक्षण जो हमारी संस्कृति में रचा बसा था उसे हम भूल गये हैं। यह संरक्षण की भावना, अब कुछ पाश्चात्य प्रकृति–प्रेमियों द्वारा वापिस लाई जा रही है। एक बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन प्रतीकों का वैज्ञानिक तथा सामाजिक के अतिरिक्त

आध्यात्मिक अर्थ भी होता है। निष्कर्ष यह है कि हमारी पुरानी संस्कृति में वैज्ञानिक सोच तथा समझ है,उसके तहत हम विज्ञान पढ़ते हुए आधुनिक बनकर ‘पोषणीय उन्नति’ (सस्टेनैबल प्रोग्रैस) कर सकते हैं। आवश्यकता है विज्ञान के प्रभावी संचार की जिस हेतु पुराणों के उपाख्यान एक उत्तम दिशा दे सकते हैं। और इस तरह हम मैकाले की शिक्षा नीति (फरवरी, 1835) – “ब्रिटिश शासन का महत् उद्देश्य (भारत में (उपनिवेशों में)) यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये।” के द्वारा व्यवहार में भ्रष्ट की गई अपनी उदात्त संस्कृति की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। वे विज्ञान का प्रसार तो कम ही कर पाए यद्यपि अंग्रेजी का प्रचार–प्रसार करने में उन्होंने आशातीत सफलता पाई। हमारा उद्देश्य पाश्चात्यों की नकल करना छोड़कर, भारतीय भाषाओं में ही प्रौविज्ञान का प्रचार–प्रसार करना होना चाहिये और तभी वह अधिक सफल भी होगा। तभी हम प्रौविज्ञान के क्षेत्र में, वास्तव में, अपनी अनुसन्धान शक्ति से, विश्व के अग्रणी देशों में समादृत नाम स्थापित कर सकेंगे।

कविता वाचक्नवी

खाते हैं हिंदी की ,बजाते हैं अंग्रेजी की-चोपड़ा-hindianuvaadak@googlegroups.com

2010/6/6 Lingual Bridge lingualbridge@gmail.com:


मित्रो, फिल्म जगत से जुड़ा चाहे कोई भी पुरस्कार समारोह हो या कोई अन्य कार्यक्रम, उसमें आप उन लगभग सभी हिंदी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और अन्य

कलाकारों को अंग्रेज़ी बोलते हुए देखेंगे-सुनेंगे जो हिंदी की बदौलत

करोड़ों हिंदी प्रेमियों के दिलों पर राज करते हैं और हिंदी की वजह से ही

आज करोड़ों और अरबों रुपए कमा पाए हैं।

अगर कोई दक्षिण भारतीय कलाकार अंग्रेज़ी में बोले, तो समझ में आता है कि

शायद भली-भाँति हिंदी नहीं जानता होगा, इसीलिए अंग्रेज़ी में अपनी बात रख

रहा है, लेकिन मैं तो उन महानुभावों का उल्लेख कर रहा हूँ जो हिंदी-भाषी

राज्यों में जन्मे हैं और पले हैं और अच्छी तरह से हिंदी बोलना जानते

हैं।

मुझे यह बड़ा विचित्र लगता है कि जिस भाषा के कारण कोई कलाकार इतना यश और धन प्राप्त करता है, उसके प्रति वह इतना उदासीन भी हो सकता है और उसकी इस कदर उपेक्षा भी कर सकता है। क्या वे इसलिए अंग्रेज़ी बोलना पसन्द करते

हैं कि उनकी दृष्टि में अंग्रेज़ी "पढ़े-लिखों' और 'सुसंस्कृत' लोगों की

भाषा है और अंग्रेज़ी का पांडित्य बघारने का इससे अच्छा अवसर कोई नहीं

होगा या इसका कोई अन्य कारण आपकी समझ में आता है?

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वेब पता : http://groups.google.co.in/group/hindianuvaadak