कबीर की उलटबांसी
मसि कागज छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ, के बावजूद कबीरदास का नाम हिंदी भक्त कवियों में बहुत ऊँचा है। वे सच्चे अर्थों में समाज-सुधारक तथा युग पुरुष थे। कबीर निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी ¶ााखा में सर्वोपरि माने जाते हैं। उनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ उन्हें हिन्दू की सन्तान मानते हैं तो कुछ उनके माता-पिता को मुसलमान-जुलाहे की जाति से जोड़ते हैं। "तू ब्रााहमन मैं का¶ाी का जुलाहा' कहकर कबीर ने अपने को जुलाहा तो स्वीकार किया है, पर एक अन्य पद में "ना हिन्दू, ना मुसलमान' बताकर उन्होंने अपने को धर्मों से अलग रखा है। हजारी प्रसाद द्विवेदीजी के ¶ाब्दों में "यह सामाजिक और आध्यात्मिक भी हो सकता है।' उनका जन्म पंद्रहवीं सदी में का¶ाी में हुआ था, परन्तु उनकी मृत्यु मगहर में हुई। ऐसी मान्यता है कि लम्बे समय तक का¶ाी में रहने वाले कबीर अपने अन्त समय यह कहते हुये मगहर चले गये कि "जो कबिरा का¶ाी मरे तो रामहिं कौन निहोरा।'
कबीर को समझने के लिये उनके जन्मकाल के समय के राजनैतिक तथा धार्मिक इतिहास को टटोलना बेहतर होगा। कबीर का जन्म उस काल में हुआ जब भारत में इस्लाम का चतुर्दिक बोलबाला था। बौद्धधर्म को अफगानिस्तान तथा दे¶ा के प¶िचमी प्रदे¶ाों से पूर्णतः समाप्त कर यह सुसंगठित धर्म भारत की मुख्यधारा में ¶ाामिल हो राजसत्ता के सहयोग से फल-फूल रहा था। दे¶ा की हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। जिस बौद्ध-मत का आधार कभी चारित्रिक संयम और चिन्तन हुआ करता था, वह समय की धारा में "महायान' से ढ़लता हुया वज्रयान तथा वाममार्ग के योग और भोग (नर-नारी समागम) के बीच झूल रहा था। वेद तथा उपनिषद के स्वर्णिम युगों से निकलकर उस काल का हिन्दू-धर्म कर्मकांड, जातिवाद, छुआछूत, पाखंड और ब्रााहृण-श्रेष्ठता की विसंगतियों से ग्रसित था। अनेक गुरु-विचारक जैसे रामानन्द, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य आदि अपने-अपने ढंग और परम्परा में हिन्दू समाज को सम्भालने का प्रयत्न कर रहे थे। निराकार ब्राहृ के उपासक कबीर ने वज्रयान से राजयोग को अपनाया। नाथपंथियों की साधना पद्धति हठयोग राजयोग का ही एक सोपान है। "ॐ रामाय: नम:' केे अधिष्ठाता रामानन्द के साथ कबीर दास का गुरू-¶िाष्य का सम्बन्ध था। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने लिखा है - "रामानन्द का सम्प्रदाय रामावत-सम्प्रदाय कहलाता है जो वि¶िाष्टाद्वैतवादी तो है, किन्तु वह उपासना विष्णु के बदले राम का करता है।' रामानन्द आचार में कठोर वर्णाश्रमी नहीं थे और भक्ति-मार्ग में उदारता के पहले बीज बोये थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी दो दलों में बँट गये। तुलसीदास और नाभादास वि¶िाष्टाद्वैतवादी के साथ-साथ वेद और वर्णाश्रम-वि·ाासी थे, जबकि कबीर दूसरी धारा के भक्त हुये जो वि¶िाष्टाद्वैत, वर्णाश्रम और वेद के विरुद्ध थे। पर दोनों ही दल रामानन्द के भक्ति-धर्म को आदर्¶ा मानते थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के ¶ाब्दों में - "रामानन्द के प्रधान उपदे¶ा अनन्य भक्ति को कबीर ने ¶िारसा स्वीकार कर लिया था।' परन्तु कबीर स्वयं गुरु-महिमा "कबिरा हरी के रूठते, गुरु के ¶ारणे जाए' एवं "गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूँ पाँय, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय' के दायरे से आगे निकलकर "राम रहीमा एक हैं, नाम धराया दोय' तथा "का¶ाी-काबा एक है, एकै राम रहीम' से होते हुये दुर्बलताओं ("नींद नि¶ाानी मौत की, उठ कबीरा जाग') तथा आडम्बरों ("माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर' एवं "मन न रँगाये, रँगाये जोगी कपड़ा' तथा "पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार' और "कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय, ता चढि मुल्ला बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय') के विरोध तक पहुँच गये। दिनकर जी के ¶ाब्दों में - "इस्लाम का एके·ारवाद कबीर को बहुत पसन्द था। किन्तु उन पर छाये हिन्दू-संस्कारों ने उनके तसव्वुफ को ठीक इस्लामी नहीं रहने दिया।' कबीर ने भारतीय समाज को तंगदिली से बाहर निकालकर एक नयी राह पर डालने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी अलग राह बनायी जिसे आज कबीर-मत अथवा कबीर-पंथ कहते हैं। इस मत ने हिन्दू-मुस्लिम को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। दिनकर जी के अनुसार - "वेदान्त और इस्लाम से अर्जित निराकारवादी संस्कार तथा जात-पाँत की उदारता के साथ-साथ धार्मिक सहिष्णुता की धारा जो कबीर और उनके अनुयायियों ने बहायी वह अपनी नकारात्मकता के कारण अपने ही घाट से बहती हुयी आगे निकली। उसने सम्पूर्ण संस्कृति और साहित्य को प्लावित नहीं किया।' इसके बावजूद कबीर दास की महत्ता कमतर नहीं होती। वे नि:सन्देह भक्तिकाल के प्रमुख कवि तथा समाज-सुधारक थे।
कबीर की भाषा सधुक्कड़ी है। इस भाषा में राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्राजभाषा के ¶ाब्दों की बहुलता है। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इसका स्पष्ट उदाहरण उनके ये कुछ पद हैं -
ज्यों तिल माहीं तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सार्इं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
कबिरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करें सुभाव।
हिन्दू कहत राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस में दोऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना।
कबीर की रचनाएँ साखी, सबद, रमैनी के अतिरिक्त बीजक में संग्रहित हैं। उनकी उलटबांसियाँ (जो न्न्ड्ढद द्धत्ड्डथ्ड्ढद्म के समान हैं) बहुत लोकप्रिय हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "कबीर' में इन उलटबांसियों की विस्तृत चर्चा की है। योगियों, सहजयानियों और तांत्रिकों के ग्रन्थों में "उल्टी बानियों' का बाहुल्य है। कबीर दास ने उनकी ¶ाब्दावली में अपने मत के ¶ाब्दों को मिलाकर अपनी उलटबांसियाँ कहीं। "कबीर' में द्विवेदी जी ने कबीर के उपमानों (संकेतों) को उदाहरण के साथ विद्वतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। द्विवेदी जी के अनुसार कबीर की उलटबांसियों को समझने के लिये ¶ाास्त्रीय परंपरा और कबीर दास का व्यक्तिगत मत सामने रखना चाहिये। उलटबांसियों के पीछे की सच्चाई को उजागर करते हुए ¶िावकुमार मिश्र जी लिखतें हैं - "उलटबांसियों को कबीर ने साधारण जनता को अपने ज्ञान से आतंकित करने के लिए नहीं लिखा। उनका लक्ष्य पोथी ज्ञान से दबे पंडित थे, जिनके बीच कबीर को रहना और जीना था। जाहिर है कि उनकी उलटबांसियों के अर्थ पोथियों में नहीं थे और पंडितों की नगरी का¶ाी का कोई भी पंडित उनका अर्थ करने में समर्थ नहीं था। पंडितों के अहंकार को कबीर की ये उलटबांसियाँ तोड़ती हैं, उनके सारे ज्ञान की पोल खोल देती है।'
यहाँ उदाहरण के लिये दो उलटबांसियाँ दी गयी हैं (उदाहरण 1 तथा उदाहरण 2, अखण्ड ज्योति, दिसम्बर 1984 तथा अगस्त 1985 के अंकों से साभार लिये गये हैं।) जिनसे पता चलता है कि इनके ¶ाब्दार्थ कितने व्यंग भरे हैं, परन्तु तत्वार्थ कितने सारगर्भित हैं - देखि-देखि जिय अचरज होई / यह पद बूझें बिरला कोई / धरती उलटि अकासै जाय, चिउंटी के मुख हस्ति समाय / बिना पवन सो पर्वत उड़े, जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े / सूखे-सरवर उठे हिलोरा, बिनु-जल चकवा करत किलोरा।
धरती उलटकर आका¶ा को चली, चींटी के मुँह में हाथी समा गया, हवा के बिना ही पर्वत उड़ने लगा, जीव जन्तु सब वृक्ष पर चढ़ने लगे। सूखे सरोवर में हिलोरें उठने लगीं, चकवा बिना पानी के ही कलोल करने लगा।
इस उलटबांसी में योगी की अन्तरंग और बहिरंग स्थिति का वर्णन है। गीता में कहा गया है कि जब संसार जागता है तब योगी सोता है। जब योगी सोता है तब संसार जागता है। अर्थात् मायाग्रस्त संसारी और माया-मुक्त योगी की स्थिति एक दूसरे से सर्वथा उलटी होती है। योगी के लिये मायावी संसार सर्वथा हेय होता है, किन्तु जो मोह ग्रस्त हैं वे उसी में हर घड़ी तल्लीन रहते हैं।
तात्पर्य- माया मोह ग्रसित जीवन में जो कर्म व्यवहार होते हैं वे साधना-रत जीवन में एकदम उलट जाते हैं। दृ¶य जगत अदृ¶य जगत में समा जाता है। यह संसार हाथी है। आत्मा सूक्ष्म है, चींटी से भी छोटी। आत्मा जब जागृत होती है तो उसमें सारा संसार विलीन हो जाता है। पर्वत जैसा दिखने वाला माया-मोह बिना प्रयास के ही, बिना हवा के ही गायब हो जाता है। जमीन में छेद करके अधोगति को जाने वाले गुण कर्म स्वभाव आत्मा के आनन्द रूपी वृक्ष में डूबने लगते हैं। यह भौतिक जीवन मायाग्रस्त, नीरस और दुःख-दारिद्र से भरा है। पर उसी सूखे सरोवर में अन्तःकरण आनन्द की हिलोरें लेने लगता है। चित्त रूपी चकवा को जब आत्म ज्ञान का अमृत मिल जाता है तो वह कलोल करने लगता है ।
उलटबांसी के इस दूसरे उदाहरण में कबीर कहते हैं - एकै कुँवा पंच पनिहारी / एकै लेजु भरै नौ नारी / फटि गया कुँआ विनसि गई बारी / विलग गई पाँचों पनिहारी।
एक कुएँ पर नौ पनिहारी पहुँचीं। रस्सी तो एक थी, पर नौ नारियाँ पानी भर रही थीं। कुँआ फट गया और बारी का खेत नष्ट हो गया। पाँचों पनिहारी अलग-अलग चली गर्इं।
तात्पर्य- अन्तःकरण रूपी कुआँ एक है। इसमें नौ पनिहारी (¶ारीर की नौ इन्द्रियाँ) कषाय-कल्मष की तरह पानी भरती हैं। आत्मा का भगवत् समर्पण होने पर वह मोह ग्रस्त अन्तःकरण फट जाता है। इस कुएँ में से पानी खींचकर पनिहारियों ने जो ¶ााक-भाजी की क्यारी उगाई थी सो नष्ट हो जाती है। खेल बिगड़ जाने पर पाँच पनिहारी अर्थात् पाँच-तत्व यथा क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर अलग-अलग चली जाती हैं।
आचार्य रामचन्द्र ¶ाुक्ल ने लिखा है - "कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है, वह तो बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओं के आधार पर है जो वेदान्त तथा हठयोग में निर्दिष्ट है।' रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है। उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है। रहस्यवाद की चर्चा करते हुये संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी लिखते हैं - हिन्दी के भक्ति-आन्दोलन काल में तीन प्रकार के कवि हुये थे। प्रथम वर्ग उनका है जो कथा-काव्य की प्रणाली से रहस्यवाद का कथन करते थे। इनके सिरमौर जायसी हैं। इनका रहस्यवाद सूफी सौन्दर्यवाद और प्रतिबिम्बवाद से प्रभावित है। दूसरे वर्ग के कवि निर्गुण का उपदे¶ा करते थे और साथ ही वर्णाश्रम धर्म की निन्दा भी। इस ¶ााखा में अग्रगणी कबीर हुये। तीसरा वर्ग सूर और तुलसी का था। यह वर्ग वर्णाश्रम के साथ था और भक्त होने के कारण सभी मनुष्यों के साथ प्रेम करता था। दिनकर जी कबीर वाली धारा को सिद्धों की धारा का विकास-मात्र मानते हैं क्योंकि वे परम सत्ता से जुड़ने के लिये योग का माध्यम लेते हैं।
No comments:
Post a Comment