poems of ramdarash mishra


शिकारी
रामदरश मिश्र

आज जंगल बन गये हैं शहर (और गाँव भी)
दहाड़ रही हैं गोलियों की आवाजें
भाग रहे हैं बेबस लोग घायल पशुओं की तरह
चीख चिल्लाहट से काँप रही हैं दिशाएँ

कहाँ हैं शिकारी, कहाँ है शिकारी?
पूछते हैं लोग लाशों से
कोई नहीं बताता
रात के सन्नाटे में
हर आदमी के भीतर के अँधेरे से
आवाज आती है-
मै तो यहाँ हूँ

तुम भी हँसो
ढाक मुस्कुरा पड़ा
उसने आदमी से कहा—
हँसो तुम भी हँसो
क्यों हँसू?-कहा आदमी ने
यों ही हँसो ,देखो वसंत आ गया है
वसंत आ गया है तो?
हँसने से मुझे क्या मिल जायेगा?
ढाक खिलखिला कर हँस पड़ा
एक के बाद एक ढाक खिलखिलाते गये
उदास घाटियाँ लाल-लाल रंगों मे नहा उठी
बावरी हवा गुनगुनाने लगीं
सहमे से पंछी उड़-उड़ कर मंगल गीत गाने लगे
धुँधुँआती दिशाएँ फड़फड़ाने लगी रंग-बिरंगी चूनर सी
दूर से किसी आम्र मंजरी ने आवाज दी
साल भर खामोशी में खोयी कोयल कूक उठी—कुऊ.....

आदमी खड़ा-खड़ा सोचता रहा---
ये सब पागल हो गये हैं क्या
जो बिना प्रयोजन के ही
डूब उतरा रहें हैं खुशी की लहरों मे?

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