कोमल है कमजोर नही


कोमल है कमजोर नही

"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध आंख मे पानी"
यह पंक्ति कभी हमारे राष्ट्रीय कवि मैथली शरण गुप्त जी ने कही थी यह कथन केवल 20वी शताब्दी का ही सच नही है बल्कि यह तो सृष्टि के प्रारंभ से आज 21वीं सदी तक का सच है इस सच को मानते हुए ही प्रसिद्भ स्त्रीवादी चिंतक सिमॉन द बुआर ने कहा था कि औरत पैदा नही होती बल्कि बनाई जाती है यानि शुरु से ही स्त्री के संदर्भ मे अक्सर यह कहा जाता रहा है कि प्रकृति ने ही स्त्री को कमजोर बनाया है
लेकिन नारी अस्मिता के प्रश्न को केन्द्र मे रख कर 20वी सदी का लेखा जोखा किया जाए तो हम साफ देखते है कि बीती हुई सदी नारी अस्मिता से संघर्षशील होने की गवाह रही है?अपनी दोयम दर्जे की स्थिति से संघर्ष के लिए 60 के दशक में नारी मुक्ति आन्दोलन ने जन्म लिया और इसी 20वी सदी के स्त्रीवादी आन्दोलन ने यह बात स्पष्ट कर दी है कि प्रकृति ने औरत को कमजोर नही बनाया बल्कि प्रत्येक देश व प्रत्येक समय का समाज ही औरतों को कमजोर बताता रहा है लेकिन इस बात की सार्थकता अभी तक नही हो पाई है चूंकि औरत ने अपनी सहनशीलता और ताकत का परिणाम दे दिया है औरत की सहनशीलता का सबसे बडा उदाहरण है कि वह सब कुछ सहने की ताकत रखती है जो पुरुषों के पास नही होती पुरुष जिन्हें परिवार का हथियार कहा जाता है, भला ये कैसा हथियार हुआ जो अपनों पर ही चल जाता है अथार्त पुरुष अपना गुस्सा अपनी पत्नी को पीट कर निकालता है या फिर उस गुस्से से बाहर आने के लिए उसे शराब का सहारा लेना पडता है लेकिन औरत पर चाहे कितने ही अत्याचार क्यों न हो फिर भी उसकी सहनशीलता कम नहीं होती न तो वह अपना गुस्सा अपने पति को पीट कर निकालती है और न ही अपना दुख कम करने के लिए ाराब पीती है तो आप ही बताएं कि असल मायने मे कमजोर कौन हुआ?
स्त्री की देह की कोमलता को समाज ने कमजोरी समझा और उसे कमजोर का नाम दे दियालेकिन स्त्रीमुक्ति आंदोलन ने पूरे विश्व मे स्त्री को एक नई दृष्टि से देखने और उसकी सही व्याख्या करने पर काफी बल दिया तभी ये बात सामने आई और औरत के लिए कहां जाने लगा कि "कोमल है कमजोर नहीं,शक्ति का नाम ही नारी है" यानि नारी का सीधा सम्बंध शक्ति से किया जाने लगा
स्त्रीवादी आन्दोलन की लड़ाई का मुद्दा हमेशा से ही स्त्री को उसका हक दिलाना था और उसी हक मे से एक था कि सदियों से मात्र देह के रुप मे पहचान रखने वाली स्त्री को बुद्धि के स्तर पर भी पहचान दिलाना अथार्त बौद्धिक मान्यता मिलना इसी लड़ाई का परिणाम है कि आज की औरतों ने काफी हद तक इस लड़ाई मे सफलता पा ली हैबात चाहे पश्चिमी स्त्री की हो या भारतीय स्त्री की अब वह समाज के सडे गले रीति-रिवाजों को अपनाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नही है वह अब इन रिवाजो की साथर्कता पर प्रश्न उठाने लगी है
भारत की आजादी के बाद दलित विमर्श और स्त्री विमर्श दो प्रमुख चिन्तन केन्द्र रहें लेकिन इन स्त्रीमुक्ति आंदोलनो ने अपना ऐसा असर दिखाया कि समाज के हर क्षेत्र् मे स्त्री की अस्मिता की पहचान की प्रक्रिया प्रारम्भ हुईफिर चाहे बात साहित्य,मीडिया,फिल्मों,राजनीति मे से किसी की भी क्यों न हो सभी जगह नारी स्वर की अभिव्यक्ति की झलक निरंतर दिखाई पड़ रही है जैसे सन 2000 मे आई फिल्म 'लज्जा'में सीता बनी नायिका अग्निपरिक्षा देने से मना कर देती है और श्री राम से अग्निपरिक्षा की मांग कर उठती है इसी तरह फिल्म 'अस्तित्व'की नायिका अपने विवाहेतर सम्बंध का खुलासा कर देती है

आज औरत आर्थिक रुप से स्वतंत्र् हो गई है वह हर क्षेत्र् मे कार्य कर रही है फिर चाहे गांव की खुरदरी जमीन हो या अंतरिक्ष लोक वह पुरुषों के साथ है न कि पीछे किन्तु चिन्ताजनक बात यह है कि मात्र् देह मानी जाने के विरुद्ध उसने जो पूरी लड़ाई लड़ी, आज वह बाजार के दबाव मे फिर मात्र् देह होने पर लौट आई है वह सच्ची मानवीय नियति तक नही पहुंच पा रही है इसलिए आज जरुरत है कि आधुनिकता और नारी की ऐसी स्त्रीवादी व्याख्या की जाएं जो स्त्री को स्त्री के ही रुप में और अपनी शर्तो पर नए युग के अनुरुप बनने का अवसर दें और उसे हर क्षेत्र मे सचमुच की भागीदारी दिलवाएं

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