Saturday, September 25, 2021
Friday, September 3, 2021
जयशंकर प्रसाद की छोटा जादूगर
इस कहानी के लेखक श्री जयशंकर प्रसाद हैं।
इस कहानी में एक बालक का माता के प्रति प्रेम, व्यवहार की कुशलता और परिश्रम से जीवन बिताने का वर्णन है।
लेखक बड़े दिन की छुट्टियों में कोलकाता घूमने गया। वहाँ एक मेले में उसने एक
तेरह-चौदह वर्ष के बालक को देखा। वह जादू के छोटे-छोटे खेल दिखाकर अपनी बीमार माँ
का इलाज कराता था। कहानी का अंत छोटे-जादूगर की बाँहों में उसकी माँ के निधन के
साथ होता है।
इस पाठ का
शीर्षक ‘छोटा जादूगर’ पूरी तरह उपयुक्त है। पूरी कहानी उस छोटे
बालक के आस-पास घूमती है जो जादू का खेल दिखाकर अपनी बीमार माँ के उपचार के लिए और
अपना पेट भरने के लिए कुछ पैसे कमा लेता है। आयु में छोटा होते हुए भी उसमें एक
कुशल जादूगर जैसी प्रतिभा है। इस पाठ का अन्य शीर्षक ‘पुरुषार्थी बालक’ या ‘छोटा श्रवण’ हो सकता है।
चरित्र --छोटा
जादूगर इस कहानी का प्रमुख पात्र है। उसके चरित्र में अनेक गुण दिखाई देते हैं। वह
पुरुषार्थी बालक है। अपने और अपनी माँ के जीवनयापन के लिए वह अपनी जादू कला से
पैसा कमाता है। निर्धन होते हुए भी वह किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता। कठिनाइयों
का सामना करते हुए स्वाभिमान के साथ जीवन बिताना चाहता है। लेखक के व्यंग्य करने
पर वह गर्व से कहता है “तमाशा देखने नहीं, दिखाने आया हूँ।” उसमें एक कुशल जादूगर बनने के सभी गुण
हैं। वह वाचाल है और आत्मविश्वास से पूर्ण है। निर्जीव खिलौने से वह ऐसा खेल
दिखाता है कि सभी हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते हैं। उसका सबसे बड़ा
गुण है उसकी मातृ-भक्ति। माँ के लिए ही वह परिश्रम से पैसे कमाता है। माँ की
मृत्यु पर उसकी करुण दशा सभी के हृदय को द्रवित कर देती है।
इस कहानी में
लेखक ने एक निर्धन माँ-बाप के स्नेह से वंचित बालक के कठिनाइयों से जूझते हुए जीने
की झाँकी प्रस्तुत की है। माँ बीमार है और पिता जेल में हैं। लेकिन बालक हार नहीं
मानता। किसी के समाने हाथ नहीं फैलाता। अपने परिश्रम और चतुराई से स्वाभिमान के
साथ जीना चाहता है। लेखक इस कहानी से बालकों को आत्मविश्वास, स्वाभिमान और परिश्रम की तथा माता-पिता की सेवा करने का संदेश देना चाहता है।II. इस कहानी से हमें कठिनाइयों से निराश न होने और कला-कौशल, परिश्रम और चतुराई से जीवनयापन करने की प्रेरणा मिलती है। इसके साथ ही
माता-पिता की सेवा करने तथा स्वाभिमान के साथ जीने की प्रेरणा भी प्राप्त होती है।
और तुम तमाशा देख रहे हो ? लेखक के इन शब्दों ने छोटे जादूगर (लड़के) के दिल को चोट पहुँचाई। उसने कहा कि वह वहाँ तमाशा देखने नहीं दिखाने आया था ताकि कुछ पैसे कमाकर माँ के पथ्य (भोजन) को प्रबन्ध कर सके।लेखक ने जब छोटे जादूगर से उसके परिवार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि घर में उसके पिता और बीमार माँ थी। पिता देश के लिए जेल में थे और बीमार माँ घर में, लेखक ने लड़के पर व्यंग्य करते हुए यह बात कही।
छोटा जादूगर’ कहानी प्रसादजी की उद्देश्यपूर्ण रचना है। छोटा जादूगर के पिता जेल में है।
उनकी देश के लिये जेल यात्री पर उसको गर्व है उसकी माता बीमारी से पीड़ित है। माँ
की दवा और पथ्य के लिए पैसा चाहिए। अपने भरण-पोषण के लिए भी धन चाहिए। अवयस्क
जादूगर यह जानता है। अपनी कच्ची उम्र में ही वह पैसा कमाने निकल पड़ता है और छोटा
जादूगर बन जाता है। असहाय बालक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता। वह अपनी निर्धनता
का उल्लेख कर भीख नहीं माँगता।
पूँजी के अभाव में व्यापार हो नहीं सकता। जादूगर बनना उसके
बुद्धि के कौशल का प्रमाण है वह संघर्ष करके जीवन बिताने का साहस दिखाता है वह
बालसुलभ करुणा के साथ दायित्व बोध का परिचय देता है। छोटा जादूगर के इन मानवीय
गुणों का उद्घाटन कर आत्मनिर्भरता और दायित्व बोध का संदेश देना ही कहानी का
उद्देश्य है।
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
कथा के क्षेत्र
में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के स्तम्भ माने जाते हैं। सन् १९१२ ई. में 'इन्दु' में उनकी पहली
कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई।] उनके पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ
संकलित हैं। 'चित्राधार' से संकलित 'उर्वशी' और 'बभ्रुवाहन' को मिलाकर उनकी
कुल कहानियों की संख्या ७२ बतला दी जाती है। यह 'उर्वशी' 'उर्वशी चम्पू' से भिन्न है, परन्तु ये दोनों
रचनाएँ भी गद्य-पद्य मिश्रित भिन्न श्रेणी की रचनाएँ ही हैं। 'चित्राधार' में तो
कथा-प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं, जिनको मिलाकर
कहानियों की कुल संख्या ७७ हो जाएँगी; परंतु कुछ अंशों
में कथा-तत्त्व से युक्त होने के बावजूद स्वयं जयशंकर प्रसाद की मान्यता के अनुसार
ये रचनाएँ 'कहानी' विधा के अंतर्गत नहीं आती हैं। अतः उनकी कुल कहानियों
की संख्या सत्तर है।
कहानी के सम्बन्ध
में प्रसाद जी की अवधारणा का स्पष्ट संकेत उनके प्रथम कहानी-संग्रह 'छाया' की भूमिका में
मिल जाता है। 'छाया' नाम का स्पष्टीकरण देते हुए वे जो कुछ कहते हैं वह काफी हद
तक 'कहानी' का परिभाषात्मक स्पष्टीकरण बन गया है। प्रसाद जी का
मानना है कि छोटी-छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा
सकता। परंतु, उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप से उसकी सबलता ही बन जाती है
क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की ओर प्रेरित कर जाती है। प्रसाद
जी के शब्दों में "...कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश
देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।" 'आनन्द' के साथ इस 'विस्तृत' विश्लेषण में
निश्चय ही अर्थ की बहुआयामी छवि सन्निहित है; और इसीलिए छोटी
कहानी भी केवल विनोद के लिए न होकर हृदय पर गम्भीर प्रभाव डालने वाली होती है। आज
भी कहानी के सन्दर्भ में प्रसाद जी की इस अवधारणा की प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई
है, बल्कि बढ़ी ही है।
कवि एवं नाटककार
के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अधिष्ठित होने के कारण
प्रसाद जी की कहानियों पर लम्बे समय तक समीक्षकों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना कि
अपेक्षित था; जबकि विजयमोहन सिंह के शब्दों में :
"साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में समान प्रतिभा तथा क्षमता
के साथ अधिकार रखने वाले प्रसाद जी ने सर्वाधिक प्रयोगात्मकता कहानी के क्षेत्र
में ही प्रदर्शित की है। मुख्य रूप से उनके शिल्प प्रयोग विलक्षण हैं।"
छायावादी और
आदर्शवादी माने जाने वाले जयशंकर प्रसाद की पहली ही कहानी 'ग्राम' आश्चर्यजनक रूप
से यथार्थवादी है। भले ही उनकी यह कहानी हिन्दी की पहली कहानी न हो, परन्तु इसे
सामान्यतः हिन्दी की पहली 'आधुनिक कहानी' माना जाता है।
इसमें ग्रामीण यथार्थ का वह पक्ष अभिव्यक्त हुआ है जिसकी उस युग में कल्पना भी
नहीं की जा सकती थी। इस कहानी में महाजनी सभ्यता के अमानवीय पक्ष का जिस
वास्तविकता के साथ उद्घाटन हुआ है वह प्रसाद जी की सूक्ष्म और सटीक वस्तुवादी
दृष्टि का परिचायक है।
सामान्यतः प्रसाद
जी को सामन्ती अभिरुचि का रचनाकार मानने की भूल भी की जाती रही है, जबकि एक ओर
प्रसाद जी 'ममता' कहानी में "पतनोन्मुख सामन्त वंश का अन्त समीप"
बतलाते हैं तो दूसरी ओर अपनी शिखर कृति 'कामायनी' में 'देव संस्कृति' के विनाश को उसकी
आन्तरिक कमियों के कारण ही स्वाभाविक मानते हैं। 'देव संस्कृति' और 'स्वर्ग की
परिकल्पना' को प्रसाद जी अपनी कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर
में' भी ध्वस्त कर डालते हैं। इस कहानी में दुर्दान्त शेख से
बिना डरे लज्जा कहती है "स्वर्ग ! इस पृथ्वी को
स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख ? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का
गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह
सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के
कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न
बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन
जाय, शेख।" यदि इस कहानी के ध्वन्यर्थ को इसके बाद हुए द्वितीय
विश्वयुद्ध की परिणति से भी जोड़ कर देखें तो प्रसाद जी की सर्जनात्मक दृष्टि की महत्ता और भी
सहजता से समझ में आ सकती है।
वस्तुतः प्रसाद
जी ने हिन्दी कहानी को अपने विशिष्ट योगदान के रूप में प्रेम की तीव्रता और
प्रतीति के साथ कहानीपन को बनाए रखते हुए आन्तरिकता और अन्तर्मुखता के आयाम ही
नहीं दिये बल्कि वास्तविकता के दोहरे स्वरूपों और जटिलताओं को पकड़ने, दरसाने और
प्रस्तुत करने के लिए हिन्दी कहानी को सक्षम भी बनाया। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के
शब्दों में :
"हिन्दी कहानी में प्रसाद का योगदान दृश्य प्रधान
चित्रात्मकता और नाटकीयता के संरचनात्मक तत्त्वों के कारण ही नहीं है बल्कि इनके
माध्यम से उस आन्तरिक संघर्ष और द्वन्द्व को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करने
में है, जो प्रसाद के पूर्व नहीं था। हिन्दी कहानी में संश्लिष्टता
और भावों के अंकन की सूक्ष्मता प्रसाद ने ही विकसित की।"
तमिल भाषा और साहित्य
तमिल भाषा और साहित्य
तमिल भाषा और साहित्य
तमिलों की
भाषा को तमिल भाषा तथा इस भाषा में लिखे साहित्य को तमिल साहित्य कहा जाता है। यह
भाषा और इसे बोलने वाले लोग भी तमिल कहे जाते हैं। यह द्रविड़ भाषा परिवार की
सर्वाधिक प्रचीन भाषा है और इस तरह इसका साहित्य भी इस परिवार का सबसे पुराना
साहित्य है। यह तमिल नाडु के रहने वाले लोगों की भाषा है, ऐसा
कहना उचित नहीं क्योंकि आज का तमिल प्रदेश बहुत छोटा है, जबकि
प्राचीन तमिल प्रदेश की सीमा काफी बड़ी थी। तोल्गाप्पियम् नामक तमिल ग्रंथ में
प्रचीन सीमा उत्तर में तिरूपति तथा दक्षिण में कुमरी नदी मानी गयी है। उस समय
कुमरी नदी तथा पहरुली नदी के बीच तमिल के 49 देश विद्यमान थे। सागर-प्रलयों
में तमिल का सारा विशाल भूभाग विलीन हो गया। इसका विवरण शिलप्पदिकारम् नाक प्राचीन
महाकाव्य की टीका में मिलता है। तमिल का तुलनात्मक व्याकरण लिखने वाले काल्डवेल ने
अपने ग्रंथ में तमिल प्रदेश की सीमा समस्त कर्नाटक, पूर्व और
पश्चिम घाट के नीचे पालघाट से लेकर कुमारी अन्तरीप तथा उत्तर में बंगोपसागर के
उपकूल तक 60,009
वर्ग
मील में फैली बतायी। अनेक विद्वानों का मत है कि ईसा से अनेक शताब्दियों पूर्व
तमिलभाषी प्रदेश पूर्व में जावा द्वीप से लेकर दक्षिण में अफ्रीका तक फैला था। आज
यह तमिलनाडु तथा श्रीलंका के कुछ भागों की जन-भाषा है।
तमिल
भाषा कितनी पुरानी है इसपर मतभेद हैं परन्तु इस बात में कोई मतभेद नहीं कि संस्कृत, ग्रीक, तथा
लैटिन आदि भाषाओं की तरह यह अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा है। यह भाषा आज भी
सामान्य व्यवहार में है जबकि अन्य प्राचीन भाषाएं ग्रन्थों तक ही सिमटकर रह गयी
हैं। तमिल ईसा पूर्व कई सौ वर्ष पहले से ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित है।
तमिल वाङमय का एक
प्रामाणिक ग्रंथ है तोल्गाप्पियम्। यह व्याकरण का ग्रंथ है जो संस्कृत के पाणिनि
के व्याकरण अष्टाध्यायी से भी पुराना है। अर्थात् ईसा पूर्व 400
के पहले का।
तमिल के महान
विद्वान राघवय्यंगार के अनुसार तमिल लिपि का सम्बंध प्राचीन मिस्री लिपि से है।
भारत की यही एक भाषा है जिसे ब्राह्मी लिपि से नहीं जोड़ा जाता। इसकी वर्णमाला में
12 स्वर,
18 व्यंजन,
तथा एक विसर्ग सदृश
अर्धस्वर है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में यह वर्णमाला सबसे छोटी है।
इरैयनाकलवियलुरै
नामक ग्रंथ ने तीन कविसंघों का वर्णन है। प्रथम कविसंघ ईसा पूर्व 9950
से ईसा पूर्व 5550
तक 4400
वर्षों का है। इसमें
89 कवि थे।
इस काल का प्रमुख ग्रन्थ है अगत्तियम् । यह व्याकरण ग्रंथ था जो आज उपलब्ध नहीं
है। इसमें 12000 सूत्र थे तथा इसे तमिल का आलोचनात्मक ग्रंथ माना जाता है। इस
काल के अन्य प्रमुख ग्रंथ थे - परिपाडल,
मुदुनारै,
मुदुगुरुकु,
तथा कलवियलुरै।
तमिल साहित्य का
संवर्धन पाण्डिय राजाओं के संरक्षण में हुआ। उनकी राजधानी दक्षिण मदुरा थी जो सागर
में विलीन हो गयी। उसके बाद उन्होंने अपनी राजधानी कपाटपुरम् नामक स्थान पर बनायी,
तथा वहां दूसरे
कविसंघ की स्थापना की। इसमें 59 सदस्य थे। इस संघ ने लगभग 3700
वर्षों तक साहित्य
रचना की। यह संघ ईसा पूर्व 1850 में समाप्त हो गया जिसका कारण सागर की उथल-पुथल ही थी। इस काल
के प्रमुख ग्रंथ हैं - तोलगाप्पियम्, महापुराणा, इसैनुणुक्कम्, तथा भूतपुराणम्।
उसके बाद वर्तमान
मदुरा में तीसरे कविसंघ की स्थापना हुई। इसमें नक्कीरर एक प्रमुख कवि थे। कुल
सदस्यों की संख्या 49 थी। यह संघ भी 1850 वर्षों तक ही रहा। इसके खत्म होने का कारण अज्ञात है।
पहले कविसंघ की कोई
रचना आज उपलब्ध नहीं है। दूसरे कविसंघ की केवल एक रचना तोलगाप्पियम् ही उपलब्ध है
जिसके चरयिता हैं अगस्त्य मुनि के शिष्य तोलगाप्पियर। तोलगाप्पियम् अद्भुत व्याकरण
ग्रन्थ है तथा ऐन्द्र व्याकरण से प्रभावित है। तीसरे कविसंघ की अनेक रचनाएं उपलब्ध
हैं। उन रचनाओं में वर्णित अनेक मन्दिर तथा मूर्तियां आज भी हैं। इस काल के प्रमुख
काव्य संग्रह हैं - एट्टुत्तोगे (आठ संग्रह),
पत्तुपाटटु (दस
कविताएं) तथा पदिनेण्कील्कणक्कु (अट्ठारह लघु कविता संग्रह)। इनमें श्रृंगार तथा
वीर रस का बाहुल्य है। प्रकृति वर्णन भी इनकी विशेषता है। एक प्रसिद्ध ग्रंथ है
तिरुक्कुरल जिसमें धर्म, अर्थ, और काम के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। संसार की किसी भी भाषा
में धर्म, अर्थ, और काम की इतनी सजीव,
सरल,
सुन्दर,
तथा संक्षिप्त
व्याख्या नहीं मिलती। इसके कवि हैं संत तिरुवल्लुवर। इसमें कुल 1330
दोहे हैं। इस संत की
महानता यह है कि विभिन्न धर्मों के अनुयायी इन्हें अपने-अपने धर्म का - शैव,
वैष्णव,
बौद्ध,
जैन और यहां तक कि
ईसाई – मानते हैं तथा प्रमाण के रूप में तिरूक्कुरल के दोहे उद्धृत
करते हैं।
तमिल साहित्य के
कालों का विभाजन इस प्रकार है - संघपूर्व काल,
संघ काल,
संघोत्तर काल,
भक्ति काल,
कम्बन काल,
मध्य काल तथा आधुनिक
काल।
संघोत्तर काल में
तमिल के प्रमुख महाकाव्यों की रचना हुई। इस काल के पांच सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य हैं
- शिलप्पदिकारम्, मणिमेकलै, जीवक-चिन्तामणि, बलयापदि, तथा कुण्जलकेशि। लगभग 600
ईस्वी तक यह काल
चला।
600 ईस्वी के आसपास से
भक्ति काल प्रारम्भ हुआ। इस दौरान शैव तथा वैष्णव भक्ति रचनाएं प्रचुर मात्रा में
हुई। बारह आलवार संत विभिन्न जातियों से हुए जिनकी रचनाओं को
नालायिरदिव्यप्रबन्धम् कहा गया। ये वैष्णव थे। इस ग्रन्थ में 4000
पद्य हैं। मन्दिरों
में आज भी इनकी रचनाएं गायी जाती हैं। इन्हीं आलावरों में एक आण्डाल नामक एक
प्रसिद्ध भक्तिनी हुई। इनका विवाह भगवान विष्णु से हुआ बताया जाता है। आण्डाल के
गीतों के संग्रह 'तिरूप्पावै' तथा 'नाच्चियार तिरूमोलि' नाम से प्रसिद्ध हैं।
भक्ति काल में अनेक
प्रबंध काव्यों की रचना हुई जिसके कारण इसे प्रबंध काल भी कहा जाता है। प्रमुख
प्रबंध काव्यों में शामिल हैं - पेरियपुराण,
कम्बनरामायण,
तथा नलबेन्वा। कम्बन
इस काल के प्रमुख कवि हैं इसलिए इसे कम्बन काल भी कहा जाता है। कम्बन रामायण 12वीं सदी में लिखा गया जिसमें 12000
पद्य हैं। इसमें
वृत्तम नामक छन्द का प्रयोग किया गया है तथा नाटकीयता भी है। तमिल काव्य परम्परा
का चरमोत्कर्ष इस ग्रन्थ में है।
13वीं सदी के बात 200
वर्षों तक टीका काल
रहा क्योंकि इस दौरान पुराने ग्रंथों की टीकाएं ही अधिक लिखी गयीं,
तमिल साहित्य में
उनका ही प्रभुत्व रहा। नच्चिनाकिनीयार को इस काल का सर्वश्रेष्ठ टीकाकार माना जाता
है। यह तमिल साहित्य का मध्य काल था जो 17वीं सदी तक चला।
18वीं सदी से तमिल
साहित्य का आधुनिक काल आया। इसमें गद्य का विकास हुआ। ईसाई मिशनरी आये जिन्होंने
तमिल में बहुत काम किया। तमिल के प्रसिद्ध लेखक वेदनायकम् पिल्लै ने हिन्दू धर्म
छोड़कर ईसाई धर्म अपनाया तथा तमिल में अनेक ग्रंथों का निर्माण किया।
सर्वसमरसकीर्तन, नीतिनूल, तथा पेणमणिमालै इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। ईसाइयों ने तमिल भाषा का
सरल व्याकरण तथा शब्दकोश बनाया। बीरमामुनि नामक ईसाई संत (फादर वैस्की) ने तमिल
में तेम्बावाणी काव्य लिखा जिसमें ईसा के बारे में बताया गया है। इनका व्यंग्य
प्रधार ग्रंथ है परमार्थ गुरूकदै। इस युग के मुसलमान लेखकों में प्रसिद्ध हैं
मुहम्मद इब्राहिम, मुहम्मद हुसेन, नायिनार, मस्तान साहिब, गुलाब कादिर आदि।
19वीं सदी के प्रसिद्ध
गद्यलेख हैं आरुभुगनावलर। इस सदी में नाटक,
गद्य,
उपन्यास,
कहानी और गीत प्रचुर
मात्रा में लिखे गये। संस्कृत के अनेक प्रमुख ग्रंथों का भी तमिल में अनुवाद हुआ।
इस काल के प्रमुख लेखक हैं - नागनाद पडिंदर,
दामोदरम् पिल्लै,
मीनाक्षीसुन्दरम्
आदि। लोकगीतों की दृष्टि से गोपाल कृष्ण भारतीय की रचना नन्दनचरित्र भी उल्लेखनीय
है। 19 वीं सदी के अन्त में लिखे गये प्रसिद्ध उपन्यास हैं -
प्रतापमुदालियारचरित्रम्, कमलाम्बालचरित्रम्, पदमावतीचरित्रम्, तथा जटावल्लवर।
20वीं शती में
अंग्रेजी का प्रभाव हुआ। तमिल में नयी भाषा शैली का सूत्रपात हुआ। आधुनिक ढंग के
साहित्य, नाटक, काव्य आदि की रचनाएं होने लगीं। सुन्दरम् पिल्लै ने मनोन्य
णीयम् नामक काव्यनाटक की रचना की। सूर्यनानायण शास्त्री ने शेक्सपीयर की शैली का
अनुकरण कर कई नाटक लिखे जिनमें मानविजय,
कलावती,
तथा रूपवती नामक
नाटक प्रसिद्ध हैं। मुदलियार ने नाटकों की कमी को पूरा करने के लिए 80
नाटक लिखे।
सब्रह्मण्यम भारती
इस युग के अमर कवि हैं। ये राष्ट्रवादी कवि हैं। जासूसी उपन्यास लिखने वालों में
आरणी कुप्पुसामी मुदलियार तथा सामाजिक उपन्यासकारों में बडबूर डरैसामी अय्यंगार
तथा रंगराज प्रसिद्ध हैं। कृष्ममूर्ति ने भी अनेक स्थायी महत्व के उपन्यास लिखे
जिनमें शिवगामियिन्शपदम तथा पर्तिवनकनऊ उल्लेखनीय हैं। अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास
लेखक हुए – वरदराजन, महादेवन, कण्णन, मणि, जीवा, अनुत्तमा, सरस्सती तथा गुहप्रिया।
पत्र-पत्रिकाओं के
प्रसार के कारण तमिल में कहानी लेखन भी लोकप्रिय हुआ। पुराने कहानीकारों में अय्यर
भारती तथा बंकटमणि प्रसिद्ध हैं। बाद के प्रमुख कहानीकार हुए –
राजाजी,
पुदुमैप्पित्तन,
अकिलन,
कल्की,
जीवा,
राजगोपालन और
पिच्चमूर्ति। इस युग के प्रमुख आलोचकों में स्वामीनाद अय्यर,
राघवय्यबर,
राघवय्यर,
का. पिल्लै,
सोमसुन्दर भारती,
वैयापुरि पिल्लै,
ब. वरदराजन,
श्रीनिवास राघवन,
सेतुपिल्लै तथा
मीनाक्षीसुन्दरम् पिल्लै। ज्ञानसम्बंधन भी आधुनिक आलोचकों में उच्चस्तरीय माने
जाते हैं। निबन्ध लेखकों में कल्याणसुन्दर मदलियार अद्वितीय माने जाते हैं।
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पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी। इस पद्य में कबीर साहब अपनी उलटवासी वाणी के माध्यम से लोगों की अज्ञानता पर व्यंग्य किये हैं कि ...
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