पूस की रात’ : हल्कू अभी जिन्दा है/ प्रमोद कुमार यादव

 पूस की रात’ : हल्कू अभी जिन्दा है/ प्रमोद कुमार यादव

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हिंदी साहित्य में लोकप्रियता की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास के बाद प्रेमचंद का स्थान है। प्रेमचंद के विपुल और विराट कथा-साहित्य में आज भी हमारे अंतःकरण के आयतन को विस्तृत करने तथा हमारी आत्मा को मानवीय और उदात्त बनाने की क्षमता है। दुर्भाग्य यह है कि आज भी प्रेमचंद से हमारा परिचय एक दो महत्वपूर्ण उपन्यासों और कुछ चर्चित कहानियों तक सीमित है। बेशक 
गोदान’ उपन्यास और कफ़नपूस की रात या ईदगाह जैसी कहानियाँ प्रेमचंद की चर अभिव्यक्तियाँ हैंपर जिन राहों से गुजरते हुए प्रेमचंद यहाँ तक पहुचे हैंजिन पड़ावों पर ठहरे हैंजिन मोड़ों पर मुड़े हैंवे भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसलिए प्रेमचंद का मुकम्मल परिचय उनकी चर्चित-अचर्चित कृतियों के बड़े संसार से गुजर कर ही पाया जा सकता है।

         प्रेमचंद के उपन्यास जितने बेहतरीन हैंउतनी ही बेहतरीन उनकी कहानियाँ भी हैं। किसानों के जीवन का वर्णन जितने सच्चेमर्मस्पर्शीजीवंत और मार्मिक तरीके से उन्होंने किया है वो शायद ही किसी और ने किया हो। पूस की रात’ कहानी भी उन्हीं कालजयी कहानियों में से एक हैजिसमें किसान के ह्रदय-विदारक  पहलू को जीवंतता के साथ उजागर करती है।

             ‘पूस की रात’ प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों में अग्रणी है। 1930 ई. में रचित यह कहानी प्रेमचंद द्वारा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के रास्ते को छोड़कर यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपना लेने की घोषणा करती है। यह उस यात्रा की शुरुआत है जो 1936 में कफ़न’ कहानी में चरम यथार्थ पर जाकर पूर्ण होती है। किसान वर्ग प्रेमचंद की चिंताओं में शीर्ष पर है। यह मार्मिक कहानी उनकी इसी चिंता का प्रतिनिधित्व करती है। कहानीकार ने इसमें किसान के ह्रदय की वेदना को कागज के पन्ने पर उतारा है।
           ‘पूस कीरात’ की मूल समस्या गरीबी की हैबाकी समस्याएँ गरीबी के दुष्चक्र से जुड़ कर ही आई हैं। जो किसान राष्ट्र के पूरे सामाजिक जीवन का आधार हैउसके पास इतनी ताकत भी नहीं है कि पूस की रात’ की कड़कती सर्दी से बचने के लिए एक कंबल खरीद सके। दूसरी ओरसमाज का एक ऐसा वर्ग है जिसके पास संसाधनों की इतनी अधिकता है कि उन्हें वह खर्च भी नहीं कर पाता है। यही है आवारा पूंजीवाद का चरम विकृत रूपजिसकी वजह से समाज में आर्थिक विषमता की दरार दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था की इसी फूहड़ता एवं विकृति पर यह मार्मिक कहानी व्यंग्य करती है। प्रेमचंद ने सर्दी के प्रतीक से इन दोनों वर्गों की तुलना दिखाते हुए समाज की कड़वी हकीकत को उकेरा है- हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा – क्यों जबराजाड़ा लगता है कहता तो थाघर में पुआल पर लेट रहतो यहाँ क्या लेने आये थे । अब खाओ ठण्डमैं क्या करूँ। मैं यहाँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँदौड़े-दौड़े आगे चले आये ... कल से मत आना मेरे साथनहीं तो ठंठे हो जाओगे। ... यह खेती का मजा है ! और एक-एक भागवान ऐसे पड़े हैंजिनके पास जाड़ा जाय तो गर्मी से घबड़ाकर भागे  मोटे-मोटे गद्देलिहाफ-कंबल । मजाल है कि जाड़े का गुजर हो जाय । तकदीर की खूबी है ! मजूरी हम करें मजा दूसरे लूटें !”  ये सिर्फ हल्कू की वेदना नहीं हैबल्कि भारतीय किसान के ह्रदय की वेदना है जो आज भी किसी मुक्तिदाता का इन्तजार कर रही है ।

        हल्कू तो सिर्फ एक माध्यम भर प्रतीत होता है। यह हल्कू की ही नहीं बल्कि हल्कू के माध्यम से कृषिप्रधान देश में रह रहे अरबों लोगों का पेट भरने वाले उस अन्नदाता किसान की ह्रदयविदारक कथा है जो सूरज के उदय होने से पहले ही खेतों में आ जाता है और अस्त होने के बाद भी खेत की मेंड़ पर बैठकर अपने सपनों को फसलों के माध्यम से पूरा करने का अरमान सजा लेता है । लेकिन वह अरमान पूरा कहाँ होता है एक समस्या से निकले नहीं कि दूसरी आकर सर पे खड़ी हो जाती हैएक भँवर से निकले नहीं कि दूसरा उन्हें अपने चपेटे में ले लेता है ।इसी जद्दोजहद में उसकी पूरी उम्र कट जाती है और एक दिन वह इस संसार को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर अनंत यात्रा पर चला जाता है। 

        प्रेमचंद गरीबी के मूल कारणों तक पहुँचते हैं। मार्क्स की भाषा में कहें तो हल्कू की गरीबी प्राकृतिक गरीबी’ नहीं है जो उत्पादन की कमी से पैदा होती है। यह तो शोषण और संसाधनों के असमान वितरण से पैदा होने वाली कृत्रिम गरीबी’ हैजिसे आज भी सामंती शक्तियाँ कायम रखना चाहती हैं। गोदान’ के होरी की तरह हल्कू की भी नियति है कि वह हर साल सेठ-साहूकारों से उधार ले और अपनी सारी कमाई सिर्फ सूद चुकाने में खर्च कर दे। उसने कंबल के लिए तीन रुपये बचाकर रखे तो थे किंतु वह धन सूद चुकाने में ही खर्च हो गया। इस शोषणपरक व्यवस्था के प्रति हल्कू की पत्नी मुन्नी की नाराज़गी इन शब्दों में व्यक्त होती है- न जाने कितनी बाकी है जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँतुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते मर-मर काम करोउपज हो तो बाकी दे दोचलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है । पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये ... ।”  यह किसान दंपत्ति के दर्द का चरमोत्कर्ष है। उसका शोषण इस कदर हुआ है कि वह किसान के बजाय मजदूर बनना ज्यादा पसंद करने लगा है।

          एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारोभले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।मगर इस देश में आज से नहींसदियों सेगुलामी से लेकर आजादी तकपाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तकबस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाताअपने पालनहारकिसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं। पहले किसानों का शोषण अंग्रेजजमींदारसेठ और साहूकार करते थे और अब नेतानौकरशाहपूंजीपति और सरकारी कर्मचारी मिलकर करते हैं। अंतर बस इतना आया है कि गोरी त्वचा’ वालों की जगह अब काली त्वचा’ वाले अपने लोग शोषण कर रहे हैं। सत्ता बदली है लेकिन स्वरूप वही हैमानसिकता वहीं है। अन्यथा क्या कारण है कि देश के तमाम हिस्सों से आकर किसानों को देश की राजधानी नई दिल्ली में नग्न होकर प्रदर्शन करना पड़ता है। यहाँ तक कि किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं की जनसभा में अपने अधिकारों की माँग करते हुए किसान पेड़ से लटक कर आत्महत्या तक कर लेते हैं। फिर भी शासन-सत्ता कुम्भकरणी नींद में सो रही है। जय जवान-जय किसान’ का नारा उद्घोषित करते हुए भले ही किसान को आधुनिक युग का महानायक घोषित किया गया होंलेकिनव्यक्ति के रूप मेंएक वर्ग के रूप में उसकी निजी और सामाजिक तौर पर जितनी क्षति हुई हैवह अकल्पनीय है। उसकी शायद ही कभी भरपाई हो सकें ?

        वास्तव में पूस की रात’ में जो दुर्दशा हल्कू की हैवही आज़ादी के सत्तर साल बाद भी शिवमूर्ति के उपन्यास आखिरी छलाँग’ में पहलवान की है। किसानों की जो भी आज दिन-हीन दशा हैउसका कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक वर्गीय स्थिति है। दूसरा दुर्भाग्य उनका भारत जैसे देश में किसान होना है । भारतीय समाज में राजनीतिराजनेतापूँजीपतिअधिकारीपटवारीशासन-सत्ता के तथाकथित एवं स्वघोषित रहनुमाओं का पहला और आखिरी निशाना यही मासूम भारतीय किसान बनता है । महंगाई की मार हों या प्राकृतिक आपदा होंदंगा-फसाद हों या आगजनीदिशाहीन सरकारी नीतियों की मार या अन्य तकलीफेंसबसे पहले इसका आसान शिकार किसान ही होता है । यूरिया(उर्वरक)दवाखादपेट्रोल-डीजल से लेकर स्कूल-कॉलेज की फीस के दाम बढ़ने की सीधी मार उसी पर पड़ती है। क्योंकि किसानों के लिए योजना बनाने वालों में से बहुतों को- यह भी पता नहीं होता कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का आलू जमीं के नीचे फलता है या ऊपर ?”  देश का दुर्भाग्य है कि गाँवों की तस्वीर वो भी बदलने का दावा कर रहे हैं जिन्होंने अपने वातानुकूलित महलनुमा घर या हवेली में दिल बहलाने के लिए दीवारों पर टंगी तस्वीरों एवं कलाकृतियों में गाँवों को देखा है। वे लोग भी गरीबोंमजलूमोंश्रमिकों एवं किसानों के रहनुमा बनने की छद्म लड़ाई लड़ रहे है जो धान-गेहूँ का अंतर नहीं समझ पातेजिनकी परवरिश नवाबी शान-ओ-शौकत से हुई ह। लेकिन अब देश का किसान एवं आमजन यह सब कुछ धीरे-धीरे समझ चुका है कि स्वतंत्र भारत की समस्त विकास नीतियाँ किसके हक में बनती हैउसका असली हितैषी कौन है। शायद इस बात का भी खुलासा करना इस उपन्यास का उद्देश्य हों। यही इसकी सार्थकता भी हैं।

        समस्याएँ पूछकर नहीं आती हैं। कबकहाँकिस तरह सेकिसके ऊपरकिधर से आकर खड़ी हो जायेगीकोई नहीं जानता। भारतीय किसान भी इससे अछूता नहीं है। इसकी कोई एक समस्या होतीकोई एक परेशानी होती तो वह उससे हमेशा दो-दो हाथ कर लेता। परन्तु यहाँ तो समस्याओं का एवरेस्ट खड़ा है। फांस’(संजीव), ‘अकाल में उत्सव’(पंकज सुबीर), ‘अभागा किसान’(पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र’), ‘जहरीली रोशनियों के बीच’(मदन मोहन), ‘जमीन से रिश्ता’(पराग मांडले), ‘किसान क्या करें’(सुरेश कंटक), ‘बाँध टूट गया’(चरण सिंह पथिक), ‘छोटा किसान’(जयनंदन) इत्यादि में किसानों की समस्याओं को पूरी जीवंतता से उकेरा गया है। बसअंतर है तो दृष्टिकोण का। किसानों की ढेर-सारी समस्याओं में एक समस्या यह है कि आमदनी शून्य है और खर्च हजारों में है। आखिर क्या करें एक किसान किसके पास जा कर अपनी वेदना व्यक्त करें ?

      केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा देश-विदेश के तमाम औद्योगिक घरानों को व्यापक पैमाने पर मुफ्त में जमीन एवं अन्य सुविधाएँ दी जाती है, 0.1 फीसद ब्याज दर पर अरबों रूपये का ऋण दिया जाता हैं  ऐसे में बहुत से औद्योगिक घराने ऋण लेकर बैठ जाते है और अपने आप को दिवालिया तक घोषित कर देते है। और उनसे एक रुपया भी सरकार एवं बैंक वसूल नहीं कर पाते हैं। इसके साथ-ही-साथ दशकों से कई देशी-विदेशी कंपनियाँ करोड़ों-अरबों का ऋण लेकर बैठी हैलेकिन उनकी कोई जाँच-पूछ नहीं की जाती है। एक बार ध्यान से अडानीअंबानीअग्रवालटाटाबिड़लासिंघानियारायमाल्याकपूर इत्यादि पर नज़र फेकने पर सारे नज़ारे’ सामने आ जाते है। इस शोषण तंत्र में सरकारी नुमाइंदे एवं बैंक के कर्मचारी-अधिकारी तथा उनके मुस्टंडे केवल गरीबोंमजदूरों एवं किसानों को ही कुछ सौ या हजार रुपये के लिए डराते-धमकाते एवं गिरफ्तार कराते हैं। पूस की रात’ में लठैत सहना’ के दुर्व्यवहार का हल्कू के दिल पर क्या असर पड़ा हैउसे प्रेमचंद ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त किया है- हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गयाकम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता। मगर सहना मानेगा नहींघुड़कियाँ जमावेगागालियाँ देगा ...।”  लेकिन शिवमूर्ति के उपन्यास आखिरी छलाँग’ उपन्यास के पात्रों को किसी के आगे झुकना मंजूर नहीं है। इस उपन्यास में चूना-पान बेचने वाला गाँव का सम्पत नामक बुजुर्ग अमीन के मुँह से तर्जनी सटाकर कहता है- बड़ी बड़ी मिलोंफैक्ट्रियों पर सिर्फ बिजली का ही लाखों का बकाया हैउनसे वसूलने की हिम्मत तुम्हारे बाप की भी नहीं है। सारा कानून सिर्फ किसानोंमजदूरों के लिए है ?  वर्तमान शासन-सत्ता की कारगुजारी को यहाँ व्यापक पैमाने पर देखा जा सकता है। अंग्रेजों के जमाने से लेकर अब तक किसान की जिंदगी में कोई खास परिवर्तन नहीं आ पाया है।
         
            ‘पूस की रात’ में किसान का जीवन संघर्ष एक अर्थ में गोदान’ से भी ज्यादा कठिन है  होरी के सामने भी गरीबीऋणग्रस्तता और सर्द रात में फसल की रक्षा करने जैसी समस्याएँ हैं किंतु खेती को लेकर उसके मन में जो सम्मान का भाव हैवह उसे मजदूर बनने से मना करता है। वह कहता है- जो दस रु. महीने का नौकर हैवह भी हमसे अच्छा खाता पहनता है। लेकिन खेती को छोड़ा तो नहीं जाता। ... खेती में जो मरजाद हैवह मजूरी में तो नहीं है।”  किन्तु, ‘पूस की रात’ का हल्कू जिन स्थितियों से गुजर रहा हैवे इतनी कठिन हैं कि मरजाद का विचार निरर्थक हो गया है। कहानी का अंत इसी नाटकीय मोड़ पर हुआ है जहाँ हल्कू किसानी छूटने से खुश नज़र आता है-

       “दोनों खेत की दशा रहे हैं । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी पर हल्कू प्रसन्न था।

         मुन्नी ने चिंतित होकर कहा – अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी ।

         हल्कू ने प्रसन्न-मुख से कहा – रात की ठण्ड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा ।”      

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