पूस की रात- योगेन्द्र किसलय
(वातायन पत्रिका ,वर्ष 19,अंक 10,1980-81)
पूस की रात ' ' कफ़न ' की भांति प्रेमचन्द के परिपक्व और अधिक आशयी मोड़ की कहानी है । छोटे से कथानक में एक सम्पूर्ण समाज की मनोदशा । चलते फिरते केवल तीन अत्यन्त मामूली पात्र हल्कू , मुन्नी ( हल्कू की पत्नी ) और जबरा ( हल्कू का कुत्ता ) । परिवेश ग्रामीण और समस्या पैसे - कपड़ों का अभाव तथा शरीर को काटने - निगलने वाला शीत । समाधान - भाड़ में जाए खेती वेती- " रात की ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा । ' ' मुन्नी मना करती है लेकिन सहना की गालियों से बचने के लिए जान काट - काट कर कंबल खरीदने के लिए बचाए तीन रुपये मजबूरन हल्कू सहना को दे देता है । पूस की अंधेरी रात और हड़कम्प जाड़ा । खेत की रखवाली पर तैनात हल्कू को खेत की कम , नींद व शीत से बचाव की चिंता अधिक है । मगर नींद आने का प्रश्न ही नहीं उठता । आठ चिलम पीने के बाद भी शरीर में गर्मास नहीं आती । " यह रांड पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है । " तभी हल्कू को वर्ग - भेद का ज्ञान होता है , अपनी असहायता तथा ग़रीबी का भी । वह एकालाप करता है : “ यह खेती का मजा है ! और एक - एक भगवान ऐसे पड़े हैं , जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबराकर भागे ! मोटे - मोटे गद्दे , लिहाफ़ , कम्बल ! मजाल है , जाड़े का गुज़र हो जाए । तक़दीर की खूबी है । मजूरी हम करें मजा दूसरे लूटें ! ' ' सुविधा भोगी वर्ग के खिलाफ़ ऐसे वाक्य प्रेमचन्द अपने सर्वहारा पात्रों के मुँह से बुलवाते रहे हैं जिनमें स्वयं उनकी वैचारिकता अधिक झलकती है । लेकिन यहाँ हल्का का उपालम्भ संयत है , परिस्थिति के अनुकूल । ठंड उसे कलपा रही है , और उसे फ़िक्र कुत्ते की है ! दरअसल इस फ़िक में उसे अपनी ही फ़िक है । यही बारीक़ विशेषता है लेखक की । हल्क ठंड भगाने के जुगाड़ करता है । कुत्ते के मुँह की गर्मी लेता है , चिलम पीता है , करवटें बदलता है और जब ठंड पर कोई वश नहीं चलता तो जबरा को अपनी गोद में चिपटा लेता है । स्वान प्रेम की यह चरम परिणति हल्कू के आदमी को जाग्रत करती है , ठीक उसी प्रकार जैसे पाग़ल किंग लिअर विपन्न स्थिति में मामूली आदमियों की पीड़ा को अपनी आहतावस्था से कहीं अधिक तरजीह देता है । जानवर जानवर है , आदमी की गोद में कब तक लेटे ? उसका स्थान वहाँ नहीं है , और फिर प्रेमचन्द का जबरा अपनी ' ड्यूटी ' के प्रति हल्कू से कहीं अधिक जागरूक है , यानी कुत्ता ऐसे आदमी से अच्छा है । किसी जानवर की आहट पाते ही वह हल्कू की गोद से निकल भागता है , भूकता है । उसे चैन नहीं है क्योंकि “ कर्तव्य हृदय में अरमान की भांति उछल रहा है । "
हल्कू आम के बगीचे से सूखी पत्तियाँ इकट्ठी करता
है , अलाव बनाकर तापता
है । इस सारे उपक्रमों में उसे खेत की रखवाली को कोई चिंता नहीं है । क्यों ? यही कहानी का मूल
है । एक आदिम जंगली की तरह हल्कू अलाव के ऊपर से कूदता - फांदता है ताकि शरीर में ऊर्जा
आए । इसके बाद कहानी का आशययुक्त ' क्लाइमेक्स ' है सावधानी से वणित , पूर्णतः स्वाभाविक । कहीं कोई थोपे हुए चमत्कार जैसी
बात नहीं । हल्कू अलाव की गर्म राख के पास बैठा है । उधर जवान खेत में नीलगायों का
झुंड घुस आया है । जबरा निरन्तर भौंके जा रहा है , लेकिन आलस और अकमर्णयता का शिकार हल्क अपनी जगह से
नहीं उठता । वह जानता है कि खेत में नीलगायें ही हैं और वे खेत तबाह कर रही हैं ।
वह अपनी जगह बैठा - बैठा बस एक बार ' होलि - होलि ' करता है जैसे इतनी - सी चौकसी और चेतावनी से शत्रु
भाग जाएगा । यहाँ तक कि वह भ्रम पालकर स्वयं को आश्वस्त करता है कि जबरा के रहते
कोई जानवर नहीं आ सकता ।
सुबह , चारों ओर धूप
खिलने के वक्त मुन्नी उसे उठाकर कहती है : “ सारे खेत का सत्यानाश हो गया । भला ऐसा भी कोई सोता
है ! तुम्हारे यहां मईया डालने से क्या हुआ ? " बजाय अफ़सोस करने के या शर्मिन्दा होने के हल्कू
बहाना बनाता है : " मैं मरते - मरते बचा , तुझे अपने खेत की पड़ी है । पेट में ऐसा दर्द हुआ कि
मैं ही जानता हूं । " खेत की दुर्दशा पर मुन्नी उदास है । वह कहती है कि अब
मालगुजारी भरने के लिए मजूरी करनी पड़ेगी । लेकिन हल्कू को राहत है क्योंकि उसे अब
रात की ठंड में यहाँ सोना तो नहीं पड़ेगा । " अत्यन्त मामूली घटना वाली इस
तीखी व आशयात्मक कहानी का निष्कर्ष क्या निकाला जाये ?
डा ० हरदयाल के शब्दों में " यथार्थ के ध्रुवांत
" की कहानी अथवा " कठोर सत्य " शोषण से भरे समाज के नकारात्मक
मूल्यों की ओर एक क़दम । सुरेश सेठ के अनुसार " नखशिख से दुरुस्त और यथार्थ
की चेतना को एक मार्मिक तीखेपन के साथ उद्घटित करती हुई यह कहानी आज को किसी भी
आधुनिक , सर्वहारा का नारा
लगाने वाली , कहानी को दो - चार पाठ पढ़ा सकती है । " डा ० मदन गुलाटी इसे प्रेमचन्द
की बेहतरीन कहानियों में से एक मानते है क्योंकि यह “ यथार्थ का एक नया
हाशिया खोलती है । " जहाँ तक घोर यथार्थ अथवा " कठोर सत्य " का
प्रश्न है सभी समालोचक एक मत हैं , क्योकि ' कफ़न ' की भांति ' पूस की रात ' भी यथार्थ के नये पृष्ठ खोलती है ।
लेकिन यह यथार्थ
लेखक के लिए अत्यन्त पीड़ा व निराशा का यथार्थ है । यह गौरवन्वित यथार्थ नहीं है
क्योंकि इसमें पलायन अन्तनिहित है , ऐसा पलायन जो क्रांति को पीछे धकेलता है और सर्वहारा
जिन्दगी में कोई ठोस परिवर्तन नहीं ला सकता । डा ० हरदयाल व सुरेश सेठ सोये हुए कुत्ते
को मृत दिखते हैं , शायद हल्कू की पत्नी के इस संकेत के आधार पर कि
" .. और जबरा मडैया के नीचे चित्त लेटा है मानो प्राण ही न हों । "
प्रतीकात्मक रूप से मृत तो हल्कू है , जबरा नहीं । चित लेटा जबरा क्या नींद के वक्त भी नींद
न ले ? उसे नील - गायों
से घायल होकर मरा हुआ , कैसे समझ लिया गया ? रात - भर वह चौकसी करता रहा , भौंकता रहा शायद
झपटा - लड़ा भी , लेकिन उसका मालिक भ्रमों व आलस की चादर ओढ़े अपनी जगह
से हिला तक नहीं । ऐसे में जबरा की कर्तव्यपरायणता तथा जुझारूपन किस काम की ? व्यंग्य इसी में
निहित है कि धरती - पुत्र से तो श्रेष्ठ जबरा कुत्ता है जो रात - भर आततायियों से
संघर्ष करता रहा । लेकिन जिसके लिए वह संघर्ष कर रहा था वही अकर्मण्य है , अपनी सम्पदा ,यहाँ तक कि अपने
अस्तित्व के प्रति भी नितान्त उदासीन । मैं सोचता हूं जिस प्रकार फ्रॉस्ट की
प्रसिद्ध कविता " स्टापिंग बाइ वुड्स ऑन ए स्नोई ईवनिंग " में सबसे
समझदार पात्र घोड़ा है , उसी प्रकार ' पूस की रात ' का सबसे समझदार पात्र जबरा है । फॉस्ट की कविता में
अपने घोड़े की बात मालिक समझ जाता है जबकि ' पूस की रात ' में हल्क अपने कुत्ते के संघर्ष को नहीं समझता है या
समझकर भी उसे नजर अन्दाज कर देता है । सुरेश सेठ के मतानुसार हल्कू इसलिए नहीं
उठता कि " गरीबी एक फ़ाजिल होती है । "
प्रेमचन्द
निश्चित यह नहीं कहना चाहते । इन यथार्थपरक कहा नियों के मोड़ पर आते - आते
प्रेमचन्द का विश्वास डगमगा गया है । उनका लेखक जबरा की भांति कब तक शोषण के
विरुद्ध युद्ध - रत रहे जब कि जिन के सिवाय वे लोगों के लिए यह युद्ध है वे स्वयं
गाफ़िल हैं , निकम्मे हैं ? कतिपय बहानों कुछ नहीं गढ़ सकते । ऐसे लोगों के लिए
जबरा भौंकते - भौंकते थक कर सो जाता है , और लेखक भी वैसी ही स्थिति में आ जाता है । निठल्लेपन
, कामचोरी , आलस और अपने
दायित्वों से पलायन का यह तीक्ष्ण सत्य अथवा दंश ' कफन ' में भी है । इस परिप्रेक्ष्य में ' पूस की रात ' तथा ' कफन ' को समान नजरिये
के साथ पढ़ा जा सकता है । ' कफ़न ' के घीसू तथा माधव का प्रतिरूप ही है ' पूस की रात , का हल्कू । बहुत
खुलकर प्रेमचन्द हल्कू पर प्रहार करते हैं : " अकर्मण्यता ने रस्सियों की
भांति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था । " दोनों कहानियों में मौजमारू निकम्मे
लोग हैं , दोनों कहानियों
में पलायन है , दोनों कहानियों में नशा है , और दोनों कहानियों में लेखक का आक्रोश है , थकान और संभवतः
हार भी । ऐसे सर्वहारा वर्ग के लिए लेखक कब तक अपना अभियान जारी रखे ? कब तक जबरा उनके
लिए भोंके ? घीसू और हल्कू नयी चेतना के बड़े - बड़े वाक्य तो बोलते हैं , लेकिन उन्हें कर
गुजरने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं । कोई उन्हें परोसी हुई खिला दे या कोई युग को
बदल दे जिसमें वे चैन से खा - पी सकें और शीत से न ठिठुरें । ये पात्र प्रेमचन्द
के आदर्श थे , लेकिन इन्होंने ही उन्हें मोह - भंगित किया । जो लड़ाई प्रेमचन्द उनके लिए लड़
रहे थे उसे उनकी अकर्मण्यता ने धूल में मिला रखा था । ऐसी स्थिति में माधव की घर
वाली को कफ़न नहीं मिलेगा और हल्कू का खेत लुटकर रहेगा । उस किसान से कैसी और कब
तक सहनुभूति जो अपने खेत की रखवाली न कर सके और ऊपर से खुश हो ? विडम्बना तो यह
है कि खेती वह संभाल नहीं पाया और मजूरी वह कह कर नहीं पायेगा । नीलगायें और शीत
तो महाजनी सभ्यता या शोषण के प्रतीक हैं जिनके आगे प्रेमचन्द या भारत का हल्कू
घुटने टेक देता है । उसकी कायरता का कितना क्षोभ रहा होगा प्रेमचन्द के चिन्तन में
?
' शतरंज के खिलाड़ी ' में भी यही क्षोभ है । वहाँ देश लुट रहा है , और यहाँ खेत !
घीसू , माधव और हल्कू की
लाचारी उनकी मनोवृत्ति बन गई है , और मनो वृत्ति बड़ी मुशकिल से जाती है । पूरी कहानी
में प्रेमचन्द ने एक गाली का प्रयोग किया है- " रांड पछुआ " जो अपनी जगह
उपयुक्त है । हाँ ! यह समझ में नहीं आता कि जब हल्कू जबरा से बातें करता है तो
बड़ी सभ्यतापूर्ण भाषा का प्रयोग करता है । कहीं भी उसके लिए तू - तड़ाक नहीं ।
भाषा में प्रवाह है , वही परिचित सादगी । हां ! जब यह पढ़ने को मिलता है : “ अंधकार में
निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था , " या " अन्धकार के उस अनन्त सागर में " तो
लगता है प्रेमचन्द लिख नहीं रहे , भाषा गढ़ रहे हैं । संभवतः यह स्पष्ट करने के लिए कि
वे ' चेस्ट ' हिन्दी से सुपरिचित हैं । सायास हिन्दी उन्हें रास नहीं आती थी । शेष सब सहज
है । ग्रामीण अंचल से अनेक शब्द जैसे ' हार ' , ' गाढ़े ' की ' चादर चिचोड़ ' , ' दोहर ' , ' पछुआ ' ' टप्प ' आदि प्रेमचन्द को अपनी जमीन से जोड़ते हैं । ' पूस की रात ' प्रेमचन्द के मोह - भंग की कहानी है , आक्रोश की भी । ऐसी कहानियों पर मौसमी आन्दोलनों के रेलों का कोई प्रभाव नहीं
पड़ सकता । वे आन्दोलन को बल दे सकती हैं ।