Saturday, August 28, 2021

पूस की रात- योगेन्द्र किसलय (वातायन पत्रिका ,वर्ष 19,अंक 10,1980-81)

 

पूस की रात- योगेन्द्र किसलय

(वातायन पत्रिका ,वर्ष 19,अंक 10,1980-81)

पूस की रात ' ' कफ़न ' की भांति प्रेमचन्द के परिपक्व और अधिक आशयी मोड़ की कहानी है । छोटे से कथानक में एक सम्पूर्ण समाज की मनोदशा । चलते फिरते केवल तीन अत्यन्त मामूली पात्र हल्कू , मुन्नी ( हल्कू की पत्नी ) और जबरा ( हल्कू का कुत्ता ) । परिवेश ग्रामीण और समस्या पैसे - कपड़ों का अभाव तथा शरीर को काटने - निगलने वाला शीत । समाधान - भाड़ में जाए खेती वेती- " रात की ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा । ' ' मुन्नी मना करती है लेकिन सहना की गालियों से बचने के लिए जान काट - काट कर कंबल खरीदने के लिए बचाए तीन रुपये मजबूरन हल्कू सहना को दे देता है । पूस की अंधेरी रात और हड़कम्प जाड़ा । खेत की रखवाली पर तैनात हल्कू को खेत की कम , नींद व शीत से बचाव की चिंता अधिक है । मगर नींद आने का प्रश्न ही नहीं उठता । आठ चिलम पीने के बाद भी शरीर में गर्मास नहीं आती । " यह रांड पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है । " तभी हल्कू को वर्ग - भेद का ज्ञान होता है , अपनी असहायता तथा ग़रीबी का भी । वह एकालाप करता है : यह खेती का मजा है ! और एक - एक भगवान ऐसे पड़े हैं , जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबराकर भागे ! मोटे - मोटे गद्दे , लिहाफ़ , कम्बल ! मजाल है , जाड़े का गुज़र हो जाए । तक़दीर की खूबी है । मजूरी हम करें मजा दूसरे लूटें ! ' ' सुविधा भोगी वर्ग के खिलाफ़ ऐसे वाक्य प्रेमचन्द अपने सर्वहारा पात्रों के मुँह से बुलवाते रहे हैं जिनमें स्वयं उनकी वैचारिकता अधिक झलकती है । लेकिन यहाँ हल्का का उपालम्भ संयत है , परिस्थिति के अनुकूल । ठंड उसे कलपा रही है , और उसे फ़िक्र कुत्ते की है ! दरअसल इस फ़िक में उसे अपनी ही फ़िक है । यही बारीक़ विशेषता है लेखक की । हल्क ठंड भगाने के जुगाड़ करता है । कुत्ते के मुँह की गर्मी लेता है , चिलम पीता है , करवटें बदलता है और जब ठंड पर कोई वश  नहीं चलता तो जबरा को अपनी गोद में चिपटा लेता है । स्वान प्रेम की यह चरम परिणति हल्कू के आदमी को जाग्रत करती है , ठीक उसी प्रकार जैसे पाग़ल किंग लिअर विपन्न स्थिति में मामूली आदमियों की पीड़ा को अपनी आहतावस्था से कहीं अधिक तरजीह देता है । जानवर जानवर है , आदमी की गोद में कब तक लेटे ? उसका स्थान वहाँ नहीं है , और फिर प्रेमचन्द का जबरा अपनी ' ड्यूटी ' के प्रति हल्कू से कहीं अधिक जागरूक है , यानी कुत्ता ऐसे आदमी से अच्छा है । किसी जानवर की आहट पाते ही वह हल्कू की गोद से निकल भागता है , भूकता है । उसे चैन नहीं है क्योंकि कर्तव्य हृदय में अरमान की भांति उछल रहा है । "

 हल्कू आम के बगीचे से सूखी पत्तियाँ इकट्ठी करता है , अलाव बनाकर तापता है । इस सारे उपक्रमों में उसे खेत की रखवाली को कोई चिंता नहीं है । क्यों ? यही कहानी का मूल है । एक आदिम जंगली की तरह हल्कू अलाव के ऊपर से कूदता - फांदता है ताकि शरीर में ऊर्जा आए । इसके बाद कहानी का आशययुक्त ' क्लाइमेक्स ' है सावधानी से वणित , पूर्णतः स्वाभाविक । कहीं कोई थोपे हुए चमत्कार जैसी बात नहीं । हल्कू अलाव की गर्म राख के पास बैठा है । उधर जवान खेत में नीलगायों का झुंड घुस आया है । जबरा निरन्तर भौंके जा रहा है , लेकिन आलस और अकमर्णयता का शिकार हल्क अपनी जगह से नहीं उठता । वह जानता है कि खेत में नीलगायें ही हैं और वे खेत तबाह कर रही हैं । वह अपनी जगह बैठा - बैठा बस एक बार ' होलि - होलि ' करता है जैसे इतनी - सी चौकसी और चेतावनी से शत्रु भाग जाएगा । यहाँ तक कि वह भ्रम पालकर स्वयं को आश्वस्त करता है कि जबरा के रहते कोई जानवर नहीं आ सकता ।

सुबह , चारों ओर धूप खिलने के वक्त मुन्नी उसे उठाकर कहती है : सारे खेत का सत्यानाश हो गया । भला ऐसा भी कोई सोता है ! तुम्हारे यहां मईया डालने से क्या हुआ ? " बजाय अफ़सोस करने के या शर्मिन्दा होने के हल्कू बहाना बनाता है : " मैं मरते - मरते बचा , तुझे अपने खेत की पड़ी है । पेट में ऐसा दर्द हुआ कि मैं ही जानता हूं । " खेत की दुर्दशा पर मुन्नी उदास है । वह कहती है कि अब मालगुजारी भरने के लिए मजूरी करनी पड़ेगी । लेकिन हल्कू को राहत है क्योंकि उसे अब रात की ठंड में यहाँ सोना तो नहीं पड़ेगा । " अत्यन्त मामूली घटना वाली इस तीखी व आशयात्मक कहानी का निष्कर्ष क्या निकाला जाये ?

 डा ० हरदयाल के शब्दों में " यथार्थ के ध्रुवांत " की कहानी अथवा " कठोर सत्य " शोषण से भरे समाज के नकारात्मक मूल्यों की ओर एक क़दम । सुरेश सेठ के अनुसार " नखशिख से दुरुस्त और यथार्थ की चेतना को एक मार्मिक तीखेपन के साथ उद्घटित करती हुई यह कहानी आज को किसी भी आधुनिक , सर्वहारा का नारा लगाने वाली , कहानी को दो - चार पाठ पढ़ा सकती है । " डा ० मदन गुलाटी इसे प्रेमचन्द की बेहतरीन कहानियों में से एक मानते है क्योंकि यह यथार्थ का एक नया हाशिया खोलती है । " जहाँ तक घोर यथार्थ अथवा " कठोर सत्य " का प्रश्न है सभी समालोचक एक मत हैं , क्योकि ' कफ़न ' की भांति ' पूस की रात ' भी यथार्थ के नये पृष्ठ खोलती है ।

लेकिन यह यथार्थ लेखक के लिए अत्यन्त पीड़ा व निराशा का यथार्थ है । यह गौरवन्वित यथार्थ नहीं है क्योंकि इसमें पलायन अन्तनिहित है , ऐसा पलायन जो क्रांति को पीछे धकेलता है और सर्वहारा जिन्दगी में कोई ठोस परिवर्तन नहीं ला सकता । डा ० हरदयाल व सुरेश सेठ सोये हुए कुत्ते को मृत दिखते हैं , शायद हल्कू की पत्नी के इस संकेत के आधार पर कि " .. और जबरा मडैया के नीचे चित्त लेटा है मानो प्राण ही न हों । " प्रतीकात्मक रूप से मृत तो हल्कू है , जबरा नहीं । चित लेटा जबरा क्या नींद के वक्त भी नींद न ले ? उसे नील - गायों से घायल होकर मरा हुआ , कैसे समझ लिया गया ? रात - भर वह चौकसी करता रहा , भौंकता रहा शायद झपटा - लड़ा भी , लेकिन उसका मालिक भ्रमों व आलस की चादर ओढ़े अपनी जगह से हिला तक नहीं । ऐसे में जबरा की कर्तव्यपरायणता तथा जुझारूपन किस काम की ? व्यंग्य इसी में निहित है कि धरती - पुत्र से तो श्रेष्ठ जबरा कुत्ता है जो रात - भर आततायियों से संघर्ष करता रहा । लेकिन जिसके लिए वह संघर्ष कर रहा था वही अकर्मण्य है , अपनी सम्पदा ,यहाँ तक कि अपने अस्तित्व के प्रति भी नितान्त उदासीन । मैं सोचता हूं जिस प्रकार फ्रॉस्ट की प्रसिद्ध कविता " स्टापिंग बाइ वुड्स ऑन ए स्नोई ईवनिंग " में सबसे समझदार पात्र घोड़ा है , उसी प्रकार ' पूस की रात ' का सबसे समझदार पात्र जबरा है । फॉस्ट की कविता में अपने घोड़े की बात मालिक समझ जाता है जबकि ' पूस की रात ' में हल्क अपने कुत्ते के संघर्ष को नहीं समझता है या समझकर भी उसे नजर अन्दाज कर देता है । सुरेश सेठ के मतानुसार हल्कू इसलिए नहीं उठता कि " गरीबी एक फ़ाजिल होती है । "

प्रेमचन्द निश्चित यह नहीं कहना चाहते । इन यथार्थपरक कहा नियों के मोड़ पर आते - आते प्रेमचन्द का विश्वास डगमगा गया है । उनका लेखक जबरा की भांति कब तक शोषण के विरुद्ध युद्ध - रत रहे जब कि जिन के सिवाय वे लोगों के लिए यह युद्ध है वे स्वयं गाफ़िल हैं , निकम्मे हैं ? कतिपय बहानों कुछ नहीं गढ़ सकते । ऐसे लोगों के लिए जबरा भौंकते - भौंकते थक कर सो जाता है , और लेखक भी वैसी ही स्थिति में आ जाता है । निठल्लेपन , कामचोरी , आलस और अपने दायित्वों से पलायन का यह तीक्ष्ण सत्य अथवा दंश ' कफन ' में भी है । इस परिप्रेक्ष्य में ' पूस की रात ' तथा ' कफन ' को समान नजरिये के साथ पढ़ा जा सकता है । ' कफ़न ' के घीसू तथा माधव का प्रतिरूप ही है ' पूस की रात , का हल्कू । बहुत खुलकर प्रेमचन्द हल्कू पर प्रहार करते हैं : " अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था । " दोनों कहानियों में मौजमारू निकम्मे लोग हैं , दोनों कहानियों में पलायन है , दोनों कहानियों में नशा है , और दोनों कहानियों में लेखक का आक्रोश है , थकान और संभवतः हार भी । ऐसे सर्वहारा वर्ग के लिए लेखक कब तक अपना अभियान जारी रखे ? कब तक जबरा उनके लिए भोंके ? घीसू और हल्कू नयी चेतना के बड़े - बड़े वाक्य तो बोलते हैं , लेकिन उन्हें कर गुजरने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं । कोई उन्हें परोसी हुई खिला दे या कोई युग को बदल दे जिसमें वे चैन से खा - पी सकें और शीत से न ठिठुरें । ये पात्र प्रेमचन्द के आदर्श थे , लेकिन इन्होंने ही उन्हें मोह - भंगित किया । जो लड़ाई प्रेमचन्द उनके लिए लड़ रहे थे उसे उनकी अकर्मण्यता ने धूल में मिला रखा था । ऐसी स्थिति में माधव की घर वाली को कफ़न नहीं मिलेगा और हल्कू का खेत लुटकर रहेगा । उस किसान से कैसी और कब तक सहनुभूति जो अपने खेत की रखवाली न कर सके और ऊपर से खुश हो ? विडम्बना तो यह है कि खेती वह संभाल नहीं पाया और मजूरी वह कह कर नहीं पायेगा । नीलगायें और शीत तो महाजनी सभ्यता या शोषण के प्रतीक हैं जिनके आगे प्रेमचन्द या भारत का हल्कू घुटने टेक देता है । उसकी कायरता का कितना क्षोभ रहा होगा प्रेमचन्द के चिन्तन में ?

 ' शतरंज के खिलाड़ी ' में भी यही क्षोभ है । वहाँ देश लुट रहा है , और यहाँ खेत ! घीसू , माधव और हल्कू की लाचारी उनकी मनोवृत्ति बन गई है , और मनो वृत्ति बड़ी मुशकिल से जाती है । पूरी कहानी में प्रेमचन्द ने एक गाली का प्रयोग किया है- " रांड पछुआ " जो अपनी जगह उपयुक्त है । हाँ ! यह समझ में नहीं आता कि जब हल्कू जबरा से बातें करता है तो बड़ी सभ्यतापूर्ण भाषा का प्रयोग करता है । कहीं भी उसके लिए तू - तड़ाक नहीं । भाषा में प्रवाह है , वही परिचित सादगी । हां ! जब यह पढ़ने को मिलता है : अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था , " या " अन्धकार के उस अनन्त सागर में " तो लगता है प्रेमचन्द लिख नहीं रहे , भाषा गढ़ रहे हैं । संभवतः यह स्पष्ट करने के लिए कि वे ' चेस्ट ' हिन्दी से सुपरिचित हैं । सायास हिन्दी उन्हें रास नहीं आती थी । शेष सब सहज है । ग्रामीण अंचल से अनेक शब्द जैसे ' हार ' , ' गाढ़े ' की ' चादर चिचोड़ ' , ' दोहर ' , ' पछुआ ' ' टप्प ' आदि प्रेमचन्द को अपनी जमीन से जोड़ते हैं । ' पूस की रात ' प्रेमचन्द के मोह - भंग की कहानी है , आक्रोश की भी । ऐसी कहानियों पर मौसमी आन्दोलनों के रेलों का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । वे आन्दोलन को बल दे सकती हैं ।

 

 

पूस की रात’ : हल्कू अभी जिन्दा है/ प्रमोद कुमार यादव

 पूस की रात’ : हल्कू अभी जिन्दा है/ प्रमोद कुमार यादव

http://www.apnimaati.com/2017/11/blog-post_62.html
                          
           

हिंदी साहित्य में लोकप्रियता की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास के बाद प्रेमचंद का स्थान है। प्रेमचंद के विपुल और विराट कथा-साहित्य में आज भी हमारे अंतःकरण के आयतन को विस्तृत करने तथा हमारी आत्मा को मानवीय और उदात्त बनाने की क्षमता है। दुर्भाग्य यह है कि आज भी प्रेमचंद से हमारा परिचय एक दो महत्वपूर्ण उपन्यासों और कुछ चर्चित कहानियों तक सीमित है। बेशक 
गोदान’ उपन्यास और कफ़नपूस की रात या ईदगाह जैसी कहानियाँ प्रेमचंद की चर अभिव्यक्तियाँ हैंपर जिन राहों से गुजरते हुए प्रेमचंद यहाँ तक पहुचे हैंजिन पड़ावों पर ठहरे हैंजिन मोड़ों पर मुड़े हैंवे भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इसलिए प्रेमचंद का मुकम्मल परिचय उनकी चर्चित-अचर्चित कृतियों के बड़े संसार से गुजर कर ही पाया जा सकता है।

         प्रेमचंद के उपन्यास जितने बेहतरीन हैंउतनी ही बेहतरीन उनकी कहानियाँ भी हैं। किसानों के जीवन का वर्णन जितने सच्चेमर्मस्पर्शीजीवंत और मार्मिक तरीके से उन्होंने किया है वो शायद ही किसी और ने किया हो। पूस की रात’ कहानी भी उन्हीं कालजयी कहानियों में से एक हैजिसमें किसान के ह्रदय-विदारक  पहलू को जीवंतता के साथ उजागर करती है।

             ‘पूस की रात’ प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानियों में अग्रणी है। 1930 ई. में रचित यह कहानी प्रेमचंद द्वारा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के रास्ते को छोड़कर यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपना लेने की घोषणा करती है। यह उस यात्रा की शुरुआत है जो 1936 में कफ़न’ कहानी में चरम यथार्थ पर जाकर पूर्ण होती है। किसान वर्ग प्रेमचंद की चिंताओं में शीर्ष पर है। यह मार्मिक कहानी उनकी इसी चिंता का प्रतिनिधित्व करती है। कहानीकार ने इसमें किसान के ह्रदय की वेदना को कागज के पन्ने पर उतारा है।
           ‘पूस कीरात’ की मूल समस्या गरीबी की हैबाकी समस्याएँ गरीबी के दुष्चक्र से जुड़ कर ही आई हैं। जो किसान राष्ट्र के पूरे सामाजिक जीवन का आधार हैउसके पास इतनी ताकत भी नहीं है कि पूस की रात’ की कड़कती सर्दी से बचने के लिए एक कंबल खरीद सके। दूसरी ओरसमाज का एक ऐसा वर्ग है जिसके पास संसाधनों की इतनी अधिकता है कि उन्हें वह खर्च भी नहीं कर पाता है। यही है आवारा पूंजीवाद का चरम विकृत रूपजिसकी वजह से समाज में आर्थिक विषमता की दरार दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था की इसी फूहड़ता एवं विकृति पर यह मार्मिक कहानी व्यंग्य करती है। प्रेमचंद ने सर्दी के प्रतीक से इन दोनों वर्गों की तुलना दिखाते हुए समाज की कड़वी हकीकत को उकेरा है- हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिपकाते हुए कहा – क्यों जबराजाड़ा लगता है कहता तो थाघर में पुआल पर लेट रहतो यहाँ क्या लेने आये थे । अब खाओ ठण्डमैं क्या करूँ। मैं यहाँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँदौड़े-दौड़े आगे चले आये ... कल से मत आना मेरे साथनहीं तो ठंठे हो जाओगे। ... यह खेती का मजा है ! और एक-एक भागवान ऐसे पड़े हैंजिनके पास जाड़ा जाय तो गर्मी से घबड़ाकर भागे  मोटे-मोटे गद्देलिहाफ-कंबल । मजाल है कि जाड़े का गुजर हो जाय । तकदीर की खूबी है ! मजूरी हम करें मजा दूसरे लूटें !”  ये सिर्फ हल्कू की वेदना नहीं हैबल्कि भारतीय किसान के ह्रदय की वेदना है जो आज भी किसी मुक्तिदाता का इन्तजार कर रही है ।

        हल्कू तो सिर्फ एक माध्यम भर प्रतीत होता है। यह हल्कू की ही नहीं बल्कि हल्कू के माध्यम से कृषिप्रधान देश में रह रहे अरबों लोगों का पेट भरने वाले उस अन्नदाता किसान की ह्रदयविदारक कथा है जो सूरज के उदय होने से पहले ही खेतों में आ जाता है और अस्त होने के बाद भी खेत की मेंड़ पर बैठकर अपने सपनों को फसलों के माध्यम से पूरा करने का अरमान सजा लेता है । लेकिन वह अरमान पूरा कहाँ होता है एक समस्या से निकले नहीं कि दूसरी आकर सर पे खड़ी हो जाती हैएक भँवर से निकले नहीं कि दूसरा उन्हें अपने चपेटे में ले लेता है ।इसी जद्दोजहद में उसकी पूरी उम्र कट जाती है और एक दिन वह इस संसार को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर अनंत यात्रा पर चला जाता है। 

        प्रेमचंद गरीबी के मूल कारणों तक पहुँचते हैं। मार्क्स की भाषा में कहें तो हल्कू की गरीबी प्राकृतिक गरीबी’ नहीं है जो उत्पादन की कमी से पैदा होती है। यह तो शोषण और संसाधनों के असमान वितरण से पैदा होने वाली कृत्रिम गरीबी’ हैजिसे आज भी सामंती शक्तियाँ कायम रखना चाहती हैं। गोदान’ के होरी की तरह हल्कू की भी नियति है कि वह हर साल सेठ-साहूकारों से उधार ले और अपनी सारी कमाई सिर्फ सूद चुकाने में खर्च कर दे। उसने कंबल के लिए तीन रुपये बचाकर रखे तो थे किंतु वह धन सूद चुकाने में ही खर्च हो गया। इस शोषणपरक व्यवस्था के प्रति हल्कू की पत्नी मुन्नी की नाराज़गी इन शब्दों में व्यक्त होती है- न जाने कितनी बाकी है जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँतुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते मर-मर काम करोउपज हो तो बाकी दे दोचलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है । पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये ... ।”  यह किसान दंपत्ति के दर्द का चरमोत्कर्ष है। उसका शोषण इस कदर हुआ है कि वह किसान के बजाय मजदूर बनना ज्यादा पसंद करने लगा है।

          एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारोभले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।मगर इस देश में आज से नहींसदियों सेगुलामी से लेकर आजादी तकपाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तकबस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाताअपने पालनहारकिसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं। पहले किसानों का शोषण अंग्रेजजमींदारसेठ और साहूकार करते थे और अब नेतानौकरशाहपूंजीपति और सरकारी कर्मचारी मिलकर करते हैं। अंतर बस इतना आया है कि गोरी त्वचा’ वालों की जगह अब काली त्वचा’ वाले अपने लोग शोषण कर रहे हैं। सत्ता बदली है लेकिन स्वरूप वही हैमानसिकता वहीं है। अन्यथा क्या कारण है कि देश के तमाम हिस्सों से आकर किसानों को देश की राजधानी नई दिल्ली में नग्न होकर प्रदर्शन करना पड़ता है। यहाँ तक कि किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं की जनसभा में अपने अधिकारों की माँग करते हुए किसान पेड़ से लटक कर आत्महत्या तक कर लेते हैं। फिर भी शासन-सत्ता कुम्भकरणी नींद में सो रही है। जय जवान-जय किसान’ का नारा उद्घोषित करते हुए भले ही किसान को आधुनिक युग का महानायक घोषित किया गया होंलेकिनव्यक्ति के रूप मेंएक वर्ग के रूप में उसकी निजी और सामाजिक तौर पर जितनी क्षति हुई हैवह अकल्पनीय है। उसकी शायद ही कभी भरपाई हो सकें ?

        वास्तव में पूस की रात’ में जो दुर्दशा हल्कू की हैवही आज़ादी के सत्तर साल बाद भी शिवमूर्ति के उपन्यास आखिरी छलाँग’ में पहलवान की है। किसानों की जो भी आज दिन-हीन दशा हैउसका कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक वर्गीय स्थिति है। दूसरा दुर्भाग्य उनका भारत जैसे देश में किसान होना है । भारतीय समाज में राजनीतिराजनेतापूँजीपतिअधिकारीपटवारीशासन-सत्ता के तथाकथित एवं स्वघोषित रहनुमाओं का पहला और आखिरी निशाना यही मासूम भारतीय किसान बनता है । महंगाई की मार हों या प्राकृतिक आपदा होंदंगा-फसाद हों या आगजनीदिशाहीन सरकारी नीतियों की मार या अन्य तकलीफेंसबसे पहले इसका आसान शिकार किसान ही होता है । यूरिया(उर्वरक)दवाखादपेट्रोल-डीजल से लेकर स्कूल-कॉलेज की फीस के दाम बढ़ने की सीधी मार उसी पर पड़ती है। क्योंकि किसानों के लिए योजना बनाने वालों में से बहुतों को- यह भी पता नहीं होता कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का आलू जमीं के नीचे फलता है या ऊपर ?”  देश का दुर्भाग्य है कि गाँवों की तस्वीर वो भी बदलने का दावा कर रहे हैं जिन्होंने अपने वातानुकूलित महलनुमा घर या हवेली में दिल बहलाने के लिए दीवारों पर टंगी तस्वीरों एवं कलाकृतियों में गाँवों को देखा है। वे लोग भी गरीबोंमजलूमोंश्रमिकों एवं किसानों के रहनुमा बनने की छद्म लड़ाई लड़ रहे है जो धान-गेहूँ का अंतर नहीं समझ पातेजिनकी परवरिश नवाबी शान-ओ-शौकत से हुई ह। लेकिन अब देश का किसान एवं आमजन यह सब कुछ धीरे-धीरे समझ चुका है कि स्वतंत्र भारत की समस्त विकास नीतियाँ किसके हक में बनती हैउसका असली हितैषी कौन है। शायद इस बात का भी खुलासा करना इस उपन्यास का उद्देश्य हों। यही इसकी सार्थकता भी हैं।

        समस्याएँ पूछकर नहीं आती हैं। कबकहाँकिस तरह सेकिसके ऊपरकिधर से आकर खड़ी हो जायेगीकोई नहीं जानता। भारतीय किसान भी इससे अछूता नहीं है। इसकी कोई एक समस्या होतीकोई एक परेशानी होती तो वह उससे हमेशा दो-दो हाथ कर लेता। परन्तु यहाँ तो समस्याओं का एवरेस्ट खड़ा है। फांस’(संजीव), ‘अकाल में उत्सव’(पंकज सुबीर), ‘अभागा किसान’(पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र’), ‘जहरीली रोशनियों के बीच’(मदन मोहन), ‘जमीन से रिश्ता’(पराग मांडले), ‘किसान क्या करें’(सुरेश कंटक), ‘बाँध टूट गया’(चरण सिंह पथिक), ‘छोटा किसान’(जयनंदन) इत्यादि में किसानों की समस्याओं को पूरी जीवंतता से उकेरा गया है। बसअंतर है तो दृष्टिकोण का। किसानों की ढेर-सारी समस्याओं में एक समस्या यह है कि आमदनी शून्य है और खर्च हजारों में है। आखिर क्या करें एक किसान किसके पास जा कर अपनी वेदना व्यक्त करें ?

      केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा देश-विदेश के तमाम औद्योगिक घरानों को व्यापक पैमाने पर मुफ्त में जमीन एवं अन्य सुविधाएँ दी जाती है, 0.1 फीसद ब्याज दर पर अरबों रूपये का ऋण दिया जाता हैं  ऐसे में बहुत से औद्योगिक घराने ऋण लेकर बैठ जाते है और अपने आप को दिवालिया तक घोषित कर देते है। और उनसे एक रुपया भी सरकार एवं बैंक वसूल नहीं कर पाते हैं। इसके साथ-ही-साथ दशकों से कई देशी-विदेशी कंपनियाँ करोड़ों-अरबों का ऋण लेकर बैठी हैलेकिन उनकी कोई जाँच-पूछ नहीं की जाती है। एक बार ध्यान से अडानीअंबानीअग्रवालटाटाबिड़लासिंघानियारायमाल्याकपूर इत्यादि पर नज़र फेकने पर सारे नज़ारे’ सामने आ जाते है। इस शोषण तंत्र में सरकारी नुमाइंदे एवं बैंक के कर्मचारी-अधिकारी तथा उनके मुस्टंडे केवल गरीबोंमजदूरों एवं किसानों को ही कुछ सौ या हजार रुपये के लिए डराते-धमकाते एवं गिरफ्तार कराते हैं। पूस की रात’ में लठैत सहना’ के दुर्व्यवहार का हल्कू के दिल पर क्या असर पड़ा हैउसे प्रेमचंद ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त किया है- हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गयाकम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता। मगर सहना मानेगा नहींघुड़कियाँ जमावेगागालियाँ देगा ...।”  लेकिन शिवमूर्ति के उपन्यास आखिरी छलाँग’ उपन्यास के पात्रों को किसी के आगे झुकना मंजूर नहीं है। इस उपन्यास में चूना-पान बेचने वाला गाँव का सम्पत नामक बुजुर्ग अमीन के मुँह से तर्जनी सटाकर कहता है- बड़ी बड़ी मिलोंफैक्ट्रियों पर सिर्फ बिजली का ही लाखों का बकाया हैउनसे वसूलने की हिम्मत तुम्हारे बाप की भी नहीं है। सारा कानून सिर्फ किसानोंमजदूरों के लिए है ?  वर्तमान शासन-सत्ता की कारगुजारी को यहाँ व्यापक पैमाने पर देखा जा सकता है। अंग्रेजों के जमाने से लेकर अब तक किसान की जिंदगी में कोई खास परिवर्तन नहीं आ पाया है।
         
            ‘पूस की रात’ में किसान का जीवन संघर्ष एक अर्थ में गोदान’ से भी ज्यादा कठिन है  होरी के सामने भी गरीबीऋणग्रस्तता और सर्द रात में फसल की रक्षा करने जैसी समस्याएँ हैं किंतु खेती को लेकर उसके मन में जो सम्मान का भाव हैवह उसे मजदूर बनने से मना करता है। वह कहता है- जो दस रु. महीने का नौकर हैवह भी हमसे अच्छा खाता पहनता है। लेकिन खेती को छोड़ा तो नहीं जाता। ... खेती में जो मरजाद हैवह मजूरी में तो नहीं है।”  किन्तु, ‘पूस की रात’ का हल्कू जिन स्थितियों से गुजर रहा हैवे इतनी कठिन हैं कि मरजाद का विचार निरर्थक हो गया है। कहानी का अंत इसी नाटकीय मोड़ पर हुआ है जहाँ हल्कू किसानी छूटने से खुश नज़र आता है-

       “दोनों खेत की दशा रहे हैं । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी पर हल्कू प्रसन्न था।

         मुन्नी ने चिंतित होकर कहा – अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी ।

         हल्कू ने प्रसन्न-मुख से कहा – रात की ठण्ड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा ।”