अंग्रेजी में देसी जासूसी
हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को टेलीविजन के प्रसार की वजह से बड़ा नुकसान
हुआ है। वरना एक जमाने में रूमानी, घरेलू या जासूसी उपन्यासों का बड़ा बाजार था, लेकिन अब कुछ अच्छे संकेत मिल रहे हैं। एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था ने इब्ने सफी के उपन्यासों को फिर से प्रकाशित किया है और उन्हें शुरू में अच्छी खासी व्यावसायिक सफलता मिली है।
एक और बड़े प्रकाशक गुलशन नंदा के उपन्यासों के अधिकार लेने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है इन्हें भी अच्छी बिक्री की उम्मीद है। एक और दिलचस्प बात यह हुई है कि इब्ने सफी और सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी उपन्यास अंग्रेजी में अनूदित होकर छपे हैं और लोगों ने इन अनुवादों में काफी दिलचस्पी ली है। यानी अंग्रेजीदां लोगों को भी उर्दू-हिन्दी के जासूसीसाहित्य में कुछ बात नजर आई है।अभी तक जासूसी उपन्यासों का प्रवाह इकतरफा ही था यानी अंग्रेजी से हिंदी
की ओर। कुछ उपन्यास बाकायदा अनुवाद होते थे, कुछ को कुछ हेराफेरी के साथ देसी माहौल में ढाल दिया जाता था। जैसे हिंदी सिनेमा वाले हॉलीवुड की फिल्मों के साथ करते हैं। यह इकतरफा रिश्ता स्वाभाविक इसलिए भी था क्योंकि अंग्रेजी में जासूसी उपन्यासों की परंपरा काफी पुरानी है और वहां इस विधा में ढेर-सी किताबें भी हैं।आर्थर कॉनन डॉयल, अर्ल स्टेनली गार्डनर, अगाथा क्रिस्टी से लेकर जॉन लकार तक बड़े प्रतिष्ठित जासूसी कथा लेखक हुए हैं। लेकिन अगर उर्दू-हिंदी के लेखक अंग्रेजी में जा रहे हैं तो यह कुछ उलटी गंगा बहाने जैसा है।
इसकी कई वजहें हो सकती हैं। एक तो यह कि जासूसी उपन्यासों की असली ताकत उनके स्थायी चरित्र और उनका माहौल होता है।इब्ने सफी के उपन्यास का माहौल आपको पचास-साठ साल पुराने जमाने में ले जाता है। यह मुमकिन है कि अंग्रेजी जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले लोगों को इन उपन्यासों में यह माहौल और इसके चरित्र दिलचस्प लगें। भारत में अंग्रेजी पढ़ने वालों की बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो अंग्रेजी को
अंग्रेजियत से नहीं जोड़ते, वे लोग इन उपन्यासों के देसीपन से जुड़ सकते हैं और जो लोग भारतीयता से उतने परिचित नहीं हैं, उनके लिए इनका नयापन ताजा लगे।ये दोनों ही लेखक मौलिक हैं, इब्ने सफी इतने ईमानदार थे कि उन्होंने अपने दो उपन्यासों का कथानक अंग्रेजी उपन्यासों से लिया तो इसका स्पष्ट उल्लेख भी किया। भारत और हिन्दी की आर्थिक सामाजिक हैसियत बेहतर हुई है इसलिए उसके लोकप्रिय साहित्य की ओर लोगों का ध्यान गया है।
लोकप्रिय साहित्य को बौद्धिक समाज में नीची नजरों से देखा जाता है लेकिन समाज में पढ़ने की आदत बनाने में इसका बड़ा योगदान है। जिस समाज में लोकप्रिय साहित्य पढ़ने का चलन कम हो जाता है उसमें अभिजात साहित्य की जगह भी कम हो जाती है।लोकप्रिय संस्कृति का भी प्रामाणिक आईना लोकप्रिय साहित्य होता है, लेकिन
अब तक हिन्दी के रूमानी या जासूसी साहित्य को गंभीरता से देखा नहीं गया है। हिन्दी समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए अंग्रेजी का ठप्पा जरूरी होता है, हो सकता है कि इब्ने सफी और सुरेन्द्र मोहन पाठक के अंग्रेजी में
जाने से ‘फुटपाथिया’ कहलाने वाले साहित्य का दर्जा थोड़ा ऊपर मान लिया जाए। अब अनुवाद का रिश्ता दोतरफा हो रहा है और शायद हिन्दी में अच्छा जासूसी साहित्य लिखने वाले नए लेखक आएं।
2 comments:
अच्छा लेख है .
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