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Tuesday, January 5, 2010
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पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी। इस पद्य में कबीर साहब अपनी उलटवासी वाणी के माध्यम से लोगों की अज्ञानता पर व्यंग्य किये हैं कि ...
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रविवार, अगस्त 28, 2011 दिल्ली में लहलहाती लेखिकाओं की फसल Issue Dated: सितंबर 20, 2011, नई दिल्ली एक भोजपुरी कहावत है-लइका के पढ़ावऽ,...
1 comment:
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इस्लामिक मान्यताओं में कुर्बानी प्रथा की बड़ी अहमियत है. बकरीद पर्व पर अल्लाह को प्रसन्न करने के लिये अपनी किसी प्यारी चीज की कुर्बानी देने का रिवाज है. और इस मौके पर इस्लाम धर्मावलंबी बकरा, या ऊँट जैसे जानवरों की बलि देकर अपनी परम्परा का निर्वहन करते हैं.
अब सवाल यह है कि महज परम्परा के नाम पर निरीह प्राणियों का दर्दनाक क़त्ल कर देना कहाँ तक जायज है. अल्लाह इतना निष्ठुर नहीं हो सकता कि वो अपने ही बनाये जीवों का क़त्ल व खून देखकर प्रसन्न हो. महज कुछ हजार में कुर्बानी के लिये खरीद कर लाया गया जीव आपका प्यारा कैसे हो सकता है. परम्पराओं व रीति रिवाजों के नाम पर कब तक हम निरीह बेजुबान प्राणियों का क़त्ल करते रहेंगे ?
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